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Learning and Teaching (अधिगम तथा सीखना) B.Ed notes in Hindi PDF Download

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हमारे Something Latest के इस पोस्ट में आपका स्वागत है। यहाँ हम B.Ed के छात्रों के लिए अधिगम तथा सीखना विषय से संबंधित हिंदी नोट्स लेकर आए हैं। ये नोट्स हिंदी में उपलब्ध हैं और बिल्कुल फ्री हैं। इस पोस्ट में हम अधिगम तथा सीखना की पुस्तक से विषयों को सरल भाषा में समझाएंगे। इसमें आपको समकालीन भारत और शिक्षा विषय के सभी अध्यायों से संबंधित महत्वपूर्ण टॉपिक्स मिलेंगे। यदि आप B.Ed के छात्र हैं और learning and teaching b.ed notes pdf in hindi ढूंढ रहे हैं तो यह नोट्स आपके लिए उपयोगी होंगे। इससे आपकी पढ़ाई और तैयारी और भी सटीक और आसान होगी।

Table of Contents

अधिगम तथा सीखना नोट्स हिंदी में

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Learning and Teaching Notes

  • बाल्यावस्था एवं विकास नोट्स (Childhood and Growing Up Notes)
  • समकालीन भारत और शिक्षा नोट्स (Contemporary India and Education Notes)
  • अधिगम तथा शिक्षण नोट्स (Learning and Teaching Notes)
  • विषय पर अनुशासन को समझना नोट्स (Understanding Discipline on Subject Notes)
  • पाठ्यक्रम में भाषा नोट्स (Language across the curriculum Notes)
  • लिंग, स्कूल और समुदाय नोट्स (Gender, School and Society Notes)
  • विज्ञान या सामाजिक विज्ञान का शिक्षाशास्त्र नोट्स (Pedagogy of School Social Science Notes)
  • ज्ञान और पाठ्यक्रम नोट्स (Knowledge and Curriculum Notes)
  • सीखने के लिए आकलन नोट्स (Assessment for Learning Notes)
  • विद्यालय विषय का शिक्षाशास्त्र नोट्स (Pedagogy of School Subjects Notes)
  • समावेशी स्कूल बनाना नोट्स (Creating an inclusive School Notes)
  • पर्शियावरणीय शिक्षा नोट्स (Environment Education Notes)

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Topics covered : –

UNIT I : अधिगम या सीखना, अधिगम का अर्थ, अधिगम की परिभाषाएं, अधिगम को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक, अधिगम को प्रभावित करने वाले अध्यापक से संबंधित कारक, अधिगम की विशेषताएं, अधिगम और विकास के मध्य अंत: संबंध UNIT II : अधिगम के सिद्धांत, व्यवहारवादी सिद्धांत, संज्ञानात्मक सिद्धांत, सामाजिक संरचना वादी सिद्धांत, उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धांत या प्रयास एवं भूल का सिद्धांत, अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत या अनुबंधन अनुक्रिया सिद्धांत, क्रिया प्रसूत अनुबंधन सिद्धांत या सक्रिय अनुबंधन का सिद्धांत, गेस्टाल्ट का अधिगम सिद्धांत या सूझबूझ का सिद्धांत, जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धांत, वाइगोत्सकी का सामाजिक संरचना वाद का सिद्धांत, बंडूरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत, थार्नडाइक का सिद्धांत, पहलव का सिद्धांत UNIT III : सृजनात्मकता, सृजनात्मकता का अर्थ, सृजनात्मकता की परिभाषाएं, सृजनशील बालकों की विशेषताएं, सृजनात्मक अधिगम में शिक्षक की भूमिका, सृजनात्मक अधिगम के शिक्षा शास्त्रीय निहितार्थ, आप कहां तक सहमत हैं कि शिक्षक एक परामर्शदाता और सुगमकर्ता है UNIT IV : पाठयोजना, पाठयोजना का अर्थ, पाठयोजना की परिभाषाएं, पाठयोजना के विशेषताएं, पाठयोजना के उपागम, पाठयोजना के सोपान, सूक्ष्म शिक्षण (Micro Teaching), सूक्ष्म शिक्षण की परिभाषाएं, सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया एवं सोपान, शिक्षण, शिक्षण का अर्थ, शिक्षण की परिभाषाएं, शिक्षण की प्रकृति और विशेषताएं, शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक, ब्लूम की टैक्सोनॉमी (Bloom’s Taxonomy), ब्लूम का वर्गीकरण, नो डिटेंशन पॉलिसी (No Detention Policy) UNIT V : शिक्षण अधिगम प्रक्रिया, शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के मुख्य चुनौतियां, शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का प्रबंधन, वस्तुनिष्ठता बनाम विषयनिष्ठता, वस्तुनिष्ठ और विषयनिष्ठ की अवधारणा का तुलनात्मक विश्लेषण, मार्किंग प्रणाली, मूल्यांकन की परंपरागत पद्धतियां, मार्किंग प्रणाली या अंकन की परंपरागत पद्धतियां, अंकन प्रणाली का महत्व, ग्रेडिंग प्रणाली, ग्रेडिंग विधियां, अंकन बनाम ग्रेडिंग

Conclusion :-

इस पोस्ट में हमने बी.एड के अधिगम तथा सीखना के नोट्स को देखा. आशा करता हूँ कि ये पोस्ट आपके लिए बहुत मददगार साबित होगा. ऐसे ही और पोस्ट के लिए हमारे इस वेबसाइट Something Latest पर आते रहें. साथ ही नोटिफिकेशन के बेल को दबाकर हमारे वेबसाइट को सब्सक्राइब ज़रूर करें ताकि अगली पोस्ट की नोटिफिकेशन मिलती रहे. पोस्ट अगर अच्छा लगे तो अपने दोस्तों के साथ शेयर ज़रूर करें.

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शिक्षण कौशल के नोट्स: परिभाषाएं,प्रमुख विधियां एवं महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Teaching Skills)

Teaching Skills For Teachers

शिक्षण कौशल की परिभाषाएं एवं महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Teaching Skills For Teachers)

शिक्षण कौशल की परिभाषाएं (teaching skills definition).

डॉक्टर बी के पासी के अनुसार- “शिक्षण कौशल, छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से संपन्न की गई संबंधित शिक्षण क्रियाओं या व्यवहारिक का समूह है।”

मेकइंटेयर एवं व्हाइट के अनुसार – “शिक्षण कौशल, शिक्षण व्यवहार से संबंधित वह  स्वरूप है ,जो कक्षा की अंतः प्रक्रिया द्वारा उन विशिष्ट परिस्थितियों को जन्म देता है। जो शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती है और सीखने में सुगमता प्रदान करती है।”

डॉ कुलश्रेष्ठ के अनुसार- ” शिक्षण कौशल शिक्षक की हाथ में वह शस्त्र है। जिसका प्रयोग करके शिक्षक अपनी कक्षा शिक्षण को प्रभावी तथा सक्रिय बनाता है एवं कक्षा की अंतर प्रक्रिया में सुधार लाने का प्रयास करता है।”

शिक्षण कौशल की प्रमुख विशेषताएं (Features of Teaching Skills)

  • शिक्षण कौशल शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाते हैं।
  • यह समस्त अंतः क्रिया को सक्रिय बनाते हैं।

3.यह विषय वस्तु को सरल एवं सुगम बनाते हैं।

4.शिक्षण कौशल विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होते हैं।

5.यह शिक्षण प्रक्रिया तथा व्यवहार को संयमित करते हैं।

शिक्षण कौशल की प्रमुख विधियां (Major methods of teaching skills)

1.शिक्षण कार्य अवलोकन विधि(Teaching work observation method)

2.साक्षात्कार और विचार विमर्श विधि(Interviews and Discussion Methods)

3.पाठ्यक्रम और उद्देश्य विश्लेषण विधि(Course and objective analysis method)

4.शिक्षा सम्मति विधि(Law of education)

शिक्षण कौशल से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Important questions related to teaching skills)

  • सूक्ष्म- शिक्षण का विकास किसने किया।  – डी.डब्लू.एलेन
  • डॉ.वी.के. पासी ने अपने अध्ययन के आधार पर कितने शिक्षण कौशल की सूची तैयार की थी। – 13
  • शिक्षण कौशल के विकास एवं सुधार की प्रविधि किसे कहा जाता है। –  सूक्ष्म शिक्षण
  • चित्र तथा पोस्टर कौन से साधन/ सामग्री है। –  दृश्य
  • अभिक्रमित अनुदेशन का विकास किसने किया था। –  बी. एफ. स्किनर ने
  • रेखीय विक्रम का प्रतिपादक किसे माना जाता है। –  बी.एफ स्किनर को
  • रेखीय अभिक्रमित अन्य किस नाम से जाना जाता है।  -बाहय अभिक्रम
  • चलचित्र कैसा साधन है। –  दृश्य- श्रव्य
  • ” एजुकेशन टेक्नोलॉजी” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था। –  ब्रायनमोर जोंस(1967)
  • शैक्षिक तकनीकी  केंद्र किसने प्रारंभ किया था । –  NCERT नई दिल्ली
  • आधारभूत शिक्षण प्रतिमान किसके द्वारा दिया गया था। –  रॉबर्ट  ग्लेजर
  • शिक्षण मशीन का निर्माण किसके द्वारा किया गया। –  सिडनी एल  प्रेसी(अमेरिका में 1926)
  • “Technology”शब्द की उत्पत्ति किस किस भाषा से हुई है। – Technikos(कला)
  • शिक्षण प्रतिमान के कितने तत्व होते हैं। –  4(उद्देश्य, संरचना, सामाजिक प्रणाली,मूल्यांकन)
  • साखी अभिक्रम का विकास किसके द्वारा किया गया। -नार्मन ए. क्राउडर
  • एलेन  एवं रेयान  ने सूक्ष्म शिक्षण के कितने कौशल बताए हैं। – 14
  • अभिक्रमित अनुदेशन कितने प्रकार के होते हैं। –  3(रेखीय, शाखीय,मैथेटिक्स)
  • OHP  का पूरा नाम है। -Over Head Projector  (ओवरहेड प्रोजेक्टर)
  • सूक्ष्म शिक्षण में एक समय में कितने शिक्षण कौशल का विकास किया जाता है। – एक
  • भारत में दूरदर्शन सेवा का औपचारिक रूप से उद्घाटन कब हुआ। –  15 सितंबर 1959 ई
  • टेलीकॉन्फ्रेसिंग कितने प्रकार की होती है। –  3( टेलीकॉन्फ्रेसिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, कंप्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग)
  • श्रव्य दृश्य सामग्री के उपागम के अंतर्गत आती है। –  हार्डवेयर
  • कठोर शिल्प उपागम का संबंध अनुदेशन के किस पक्ष से होता है। – ज्ञानात्मक
  • खोजपूर्ण प्रश्न पूछने से छात्रों में किस का विकास होता है। –  ज्ञानात्मक
  • किस शिक्षण कौशल के अंतर्गत शिक्षक द्वारा हावभाव एवं अपनी स्थिति को बदला जाता है। -उद्दीपन भिन्नता
  • बोध स्तर के शिक्षण प्रतिमान का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया।   –  बी एस ब्लूम
  • एजर डेल के अनुसार किस प्रकार का अनुभव सबसे स्थाई होता है। –  प्रत्यक्ष अवलोकन
  • शिक्षक की योग्यता एवं आचरण का मूल्यांकन सबसे भली प्रकार कौन करता है। –  छात्र/ शिष्य
  • शिक्षण की समस्याओं को हल करने का दायित्व किस का होता है। –  शिक्षक का
  • विद्यालय परिसर के बाहर एक शिक्षक को अपने छात्र से किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। –  मैत्रीपूर्ण
  • निगमनात्मक शिक्षण प्रविधि किसके अंतर्गत आती है। –  सामान्य से विशिष्ट की ओर
  • अध्यापक के लिए सबसे मूल्यवान वस्तु क्या होती है। –  छात्रों का विश्वास
  • ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों के स्कूल से भागने तथा पढ़ाई छोड़ने का क्या कारण होता है। –  नीरज वातावरण
  • भारत में शिक्षित बेरोजगारी का प्रमुख कारण होता है। –  उद्देश्यहीन शिक्षा
  • किस प्रकार का कक्षा नेतृत्व सबसे उत्तम माना गया है। –  लोकतांत्रिक
  • किसी भी विषय वस्तु को छात्रों को सरलता से सिखाने के लिए आवश्यक गुण अध्यापक के लिए कौन सा है। –  प्रभावी अभिव्यक्ति
  • वर्तमान समय में प्राइमरी शिक्षा की दुर्दशा का मुख्य कारण बतलाइए। –  शिक्षक- छात्र विषम अनुपात
  • छोटे बच्चों की शिक्षा देना जरूरी है, लेकिन बच्चों पर कौन सा बोझ नहीं डालना चाहिए। –  गृह
  • जब छात्र उन्नति करते हैं तो उनका अध्यापक कैसा महसूस करता है। –  आत्म संतोष
  • शिक्षा से किस का कल्याण होता है। –  समाज के सभी वर्गों का
  • यह किसने कहा है कि“ शिशु का मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है”। –  प्लेटो ने
  • किस विद्वान के द्वारा सीखने के पांच चरण बतलाए गए हैं। –  हरबर्ट स्पेंसर
  • “  किंडरगाटेर्न ” स्कूल सबसे पहले किस देश में खोले गए थे। –  जर्मनी
  • भाषा सीखने का सबसे प्रभावी उपाय है। – वार्तालाप करना
  • नर्सरी स्कूलों की शुरुआत किसने की थी। –  फ्रोबेल
  • कौन सी शिक्षण विधि वास्तविक अनुभवों को प्रदान करने के लिए उत्तम मानी जाती है। –  भ्रमण विधि
  • किस विद्वान के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में” अभिरुचि” को सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताया गया है। –  टी पी नन
  • आज के आवासीय स्कूल किस भारतीय पद्धति के समान है। –  गुरुकुल
  • भारत में स्त्री शिक्षा के महान समर्थक कौन थे। –  कार्वे
  • ज्ञान इंद्रियों का प्रशिक्षण किस प्रकार का होता है। –  अभ्यास द्वारा
  • प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रवर्तक थे। –  विलियम जेम्स
  • यह किसने कहा है कि”बच्चों के लिए सबसे उत्तम शिक्षक वह होता है जो स्वयं बालक जैसा हो”। –  मैकेन
  • गणित शिक्षण की कौन सी संप्रेषण रणनीति सर्वाधिक उत्तम उपयुक्त मानी गई है। –  एल्गोरिथ्म
  • एक शिक्षक के घर में किस वस्तु का होना ज्यादा जरूरी है। –  पुस्तकालय
  • किस सिद्धांत द्वारा बालक में रूचि का विकास होता है। –  प्रेरणा का सिद्धांत
  • अधिगम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत बतलाइए। –  क्रिया का सिद्धांत
  • वैदिक काल में परिवार में विद्या का प्रारंभ करते समय कौन सा संस्कार होता था। –  विद्यारंभ संस्कार( चूड़ाकर्म)
  • शिक्षा की अवधि क्या है। –  500 ईसा पूर्व से 1200 तक

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3 thoughts on “शिक्षण कौशल के नोट्स: परिभाषाएं,प्रमुख विधियां एवं महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Teaching Skills)”

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शिक्षण सहायक सामग्री का कक्षा शिक्षण में उपयोग || Use of Teaching Aids in Classroom Teaching

आज हम कक्षा शिक्षण में उपयोग होने वाली शिक्षण सहायक सामग्री (teaching aids in classroom teaching) के बारें में विस्तार से महत्त्वपूर्ण तथ्य को पढेंगे

उद्योतन सामग्री के प्रकार –

श्रव्य सहायक सामग्री .

ग्रामोफ़ोन

दृश्य सहायक सामग्री –

फ्लैनल बोर्ड

  • अभिक्रमित अनुदेशन विधि 
  • सूक्ष्म शिक्षण विधि 

श्रव्य-दृश्य सहायक सामग्री एवं उपयोग विधि –

ये भी जरूर पढ़ें⇓⇓⇓

  • शिक्षण कौशल
  • अनुकरण शिक्षण विधि 
  • पर्यवेक्षित अध्ययन विधि
  • इकाई शिक्षण विधि 
  • साहित्य के शानदार वीडियो यहाँ देखें 

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Learning and Teaching B.Ed Notes , Book , Guide pdf | अधिगम एवं शिक्षण बीएड के गाइड ,नोट्स पी.डी.एफ

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Home » Educational Psychology » अधिगम/सीखने का सिद्धान्त (Theories of Learning)

अधिगम/सीखने का सिद्धान्त (Theories of Learning)

हिलगार्ड (Hilgard) ने अपनी पुस्तक ‘थ्योरीज ऑफ लर्निग’ (Theories of Learning) में दस से अधिक अधिगम/सीखने के सिद्धान्तों का वर्णन किया है। इनके सम्बन्ध में यह निश्चय करना कठिन है कि कौन-सा सिद्धान्त ठीक और कौन-सा गलत है। फ्रेंडसन (Frandsen) ने ठीक ही लिखा है-“सिद्धान्त न तो ठीक होते हैं और न गलत। वे केवल कुछ विशेष कार्यों के लिए कम या अधिक लाभप्रद होते हैं।” इस कथन को ध्यान में रखकर हम सीखने के अधिक लाभप्रद सिद्धान्तों का वर्णन कर रहे हैं। यथा-

1. थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (Thorndike’s Theory of Learning) 2. सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Conditioned Response Theory) 3. प्रबलन का सिद्धान्त (Reinforcement’s Theory) 4. स्किनर का सीखने का सिद्धान्त (Skinner’s Theory of Learning) 5. सूझ का सिद्धान्त (Insight’s Theory)

Table of Contents

थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त (THORNDIKE’S THEORY OF LEARNING)

ई. एल. थार्नडाइक (E. L. Thorndike) ने 1913 में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology) में सीखने का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है; यथा-

  • थार्नडाइक का सम्बन्धवाद (Thorndike’s Connectionism)
  • सम्बन्धवाद का सिद्धान्त (Connectionist’s Theory)
  • उद्दीपन-प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Stimulus-Response (S-R) Theory)
  • सीखने का सम्बन्ध सिद्धान्त (Bond Theory of Learning)
  • प्रयत्न एवं भूल का सिद्धान्त (Trial and Error Learning)

1. सिद्धान्त का अर्थ

जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया (Response) करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट प्रतिक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिसे ‘उद्दीपक प्रतिक्रिया सम्बन्ध’ (S-R Bond) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध के फलस्वरूप, जब व्यक्ति भविष्य में उसी उद्दीपक का अनुभव करता है, तब वह उससे सम्बन्धित उसी प्रकार की प्रतिक्रिया या व्यवहार करता है।

2. थार्नडाइक द्वारा सिद्धान्त की व्याख्या

थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है- “सीखना सम्बन्ध स्थापित करना है। सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य मनुष्य का मस्तिष्क करता है।” “Learning is connecting. The mind is man’s connection system.” -Thorndike : Human Learning

थार्नडाइक की धारणा है—सीखने की प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का विभिन्न मात्राओं में सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह सम्बन्ध विशिष्ट उद्दीपकों और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के कारण स्नायुमण्डल (Nervous System) में स्थापित होता है। इस सम्बन्ध की स्थापना सीखने की आधारभूत शर्त है। यह सम्बन्ध अनेक प्रकार का हो सकता है। इस पर प्रकाश डालते हुए बिगी एवं हण्ट (Bigge and Hunt) ने लिखा है-“सीखने की प्रक्रिया में किसी मानसिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से, शारीरिक क्रिया का मानसिक क्रिया से, मानसिक क्रिया का मानसिक क्रिया से या शारीरिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से सम्बन्ध होना आवश्यक है।”

3. थार्नडाइक का प्रयोग

थार्नडाइक ने अपने सीखने के सिद्धान्त की परीक्षा करने के लिए अनेक पशुओं और बिल्लियों पर प्रयोग किये। उसने अपने एक प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द कर दिया। पिंजड़े का दरवाजा एक खटके के दबने से खुलता था। उसके बाहर भोजन रख दिया। बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था। उद्दीपक के कारण उसमें प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। उसने अनेक प्रकार से बाहर निकलने का प्रयत्न किया। एक बार संयोग से उसका पंजा खटके पर पड़ गया। फलस्वरूप, वह दब गया और दरवाजा खुल गया। थार्नडाइक ने इस प्रयोग को अनेक बार दोहराया। अन्त में, एक समय ऐसा आ गया, जब बिल्ली किसी प्रकार की भूल न करके खटके को दबाकर पिंजड़े का दरवाजा खोलने लगी। इस प्रकार उद्दीपक और प्रतिक्रिया में सम्बन्ध (R-S Bond) स्थापित हो गया।

थार्नडाइक (Thorndike) के सम्बन्धवाद के सिद्धान्त ने सीखने के क्षेत्र में प्रयास तथा त्रुटि (Trial and Error) को विशेष महत्त्व दिया है। प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जब हम किसी काम को करने में त्रुटि या भूल करते हैं और बार-बार प्रयास करके त्रुटियों की संख्या कम या समाप्त की जाती है तो यह स्थिति प्रयास एवं त्रुटि द्वारा सीखना कहलाती है।

वुडवर्थ (Woodworth) ने लिखा है-“प्रयास एवं त्रुटि में किसी कार्य को करने के लिए अनेक प्रयल करने पड़ते हैं, जिनमें अधिकांश गलत होते हैं।”

4. थार्नडाइक का प्रयोग (Experiment by Thorndike)

प्रयास तथा त्रुटि के सिद्धान्त के प्रवर्तक थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द करके यह प्रयोग किया। भूखी बिल्ली पिंजड़े के बाहर रखा मछली का टुकड़ा प्राप्त करने हेतु पिंजड़े से बाहर आने के अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयास करती रही। अन्ततः वह पिंजड़ा खोलना सीख गई। बिल्ली के समान बालक भी चलना, जूते पहनना, चम्मच खाना, आदि क्रियाएँ सीखते हैं । वयस्क लोग भी ड्राइविंग, टेनिस, क्रिकेट, आदि खेलना, टाई की गाँठ बाँधना इसी सिद्धान्त के अनुसार सीखते हैं।

5. सिद्धान्त का शिक्षा में महत्त्व (Importance in Education of Theory)

शिक्षा में प्रयास तथा त्रुटि का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त का महत्त्व इस प्रकार है-

(i) बड़े तथा मन्द बुद्धि बालकों के लिए यह सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है। (ii) इस सिद्धान्त से बालकों में धैर्य तथा परिश्रम के गुणों का विकास होता है। (iii) बालकों में परिश्रम के प्रति आशा का संचार करता है (iv) इस सिद्धान्त से कार्य की धारणाएँ (Concepts) स्पष्ट हो जाती हैं। (v) अनुभवों का लाभ उठाने की क्षमता का विकास होता है। (vi) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “गणित, विज्ञान तथा समाजशास्त्र जैसे गम्भीर चिन्तन विषयों को सीखने में यह सिद्धान्त उपयोगी है।” (vii) गैरिसन व अन्य (Garrison and Others) के अनुसार, “इस सिद्धान्त का सीखने की प्रक्रिया में विशेष महत्त्व है। समस्या समाधान पर यह बल देता है।” (viii) कोलेसनिक (Kolesnik) के शब्दों में, “लिखना, पढ़ना, गणित सिखाने में यह सिद्धान्त उपयोगी है। बीसवीं सदी में अमरीकी शिक्षा पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है।”

6. सिद्धान्त के गुण व विशेषताएँ

‘सम्बन्धवाद’ या ‘उद्दीपन-प्रतिक्रिया’ सिद्धान्त की विशेषताएँ निम्नांकित हैं- (i) यह सिद्धान्त, उद्दीपक और प्रतिक्रिया के सम्बन्ध को सीखने का आधारभूत कारण मानता है। (ii) यह सिद्धान्त, शिक्षण में प्रेरणा को विशेष महत्त्व देता है। (iii) यह सिद्धान्त, इस बात पर बल देता है कि सीखना एक असम्बद्ध प्रक्रिया नहीं है, वरन् प्रत्यक्ष, गत्यात्मक, ज्ञानात्मक और भावात्मक अंगों का पुंज है। (iv) इस सिद्धान्त के अनुसार, जो व्यक्ति उद्दीपकों और प्रतिक्रियाओं में जितने अधिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, उतना ही अधिक बुद्धिमान वह हो जाता है। (v) इस सिद्धान्त के आधार पर थोर्नडाइक ने सीखने के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये तत्परता का नियम, अभ्यास का नियम, प्रभाव या परिणाम का नियम।

7. सिद्धान्त के दोष 

थार्नडाइक के इस सिद्धान्त में निम्नलिखित स्पष्ट दोष हैं-

(i) यह सिद्धान्त, व्यर्थ के प्रयत्नों पर बल देता है, जिनके कारण सीखने में बहुत समय नष्ट होता है। (ii) यह सिद्धान्त, किसी क्रिया को सीखने की विधि को बताता है, पर उसे सीखने का कारण नहीं बताता है। (iii) यह सिद्धान्त, सीखने की क्रिया को यान्त्रिक बना देता है और मानव के विवेक, चिन्तन, आदि गुणों की अवहेलना करता है। (iv) जब एक कार्य को एक विशिष्ट विधि से एक ही बार में सीखा जा सकता है, तब उसका बार-बार प्रयास करके सीखना व्यर्थ है।

8. निष्कर्ष

इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) ने लिखा है-“लगभग आधी शताब्दी तक सम्बन्धवाद का विद्यालय के अभ्यास में प्रमुख स्थान था। पर अब इसे अन्य सिद्धान्तों की रोशनी में सुधारा जा रहा है।”

सम्बद्ध-प्रतिक्रिया सिद्धान्त (CONDITIONED RESPONSE THEORY)

सम्बद्ध-प्रतिक्रिया सिद्धान्त का प्रतिपादन रूसी शरीरशास्त्री आई. पी. पावलव (I. P. Pavlov) ने किया था। इस मत के अनुसार सीखना एक अनुकूलित अनुक्रिया है। बर्नार्ड के शब्दों में- “अनुकूलित अनुक्रिया उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है जिसमें उत्तेजना पहले किसी विशेष अनुक्रिया के साथ लगी रहती है और अन्त में वह किसी व्यवहार का कारण बन जाती है जो पहले मात्र रूप से साथ लगी हुई थी।”

भोजन देखकर कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगती है। यहाँ भोजन एक स्वाभाविक उत्तेजक या उद्दीपक (Stimulus) है और कुत्ते के मुँह से लार टपकना एक स्वाभाविक क्रिया या सहज-प्रक्रिया (Reflex Action) है। पर यदि किसी अस्वाभाविक उत्तेजक के कारण भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगे तो, इसे ‘सम्बद्ध-सहज-क्रिया’ या ‘सम्बद्ध-प्रतिक्रिया’ (Conditioned Reflex or Response) कहते हैं। दूसरे शब्दों में, अस्वाभाविक उत्तेजक के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के समान होने वाली प्रतिक्रिया को सम्बद्ध सहज-क्रिया कहते हैं। इसके अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम लैंडल के शब्दों में कह सकते हैं – “सम्बद्ध सहज-क्रिया में कार्य के प्रति स्वाभाविक उत्तेजक के बजाए एक प्रभावहीन उत्तेजक होता है, जो स्वाभाविक उत्तेजक से सम्बन्धित किये जाने के कारण प्रभावपूर्ण हो जाता है। “

2. पावलव का प्रयोग 

क्रिया के सिद्धान्त का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है। इसके मानने वाले विशेष रूप से व्यवहारवादी (Behaviourists) हैं। उनका कहना है कि सीखना एक प्रकार से उद्दीपक और प्रतिक्रिया का सम्बन्ध है। इस विचार को सत्य सिद्ध करने के लिए रूसी मनोवैज्ञानिक पावलव (Pavlov) ने कुत्ते पर एक प्रयोग किया। उसने कुत्ते को भोजन देने से पहले कुछ दिनों तक घण्टी बजाई। उसके बाद उसने भोजन न देकर केवल घण्टी बजाई। तब भी कुत्ते के मुँह से लार टपकने लगी। इसका कारण यह था कि कुत्ते ने घण्टी बजने से यह सीख लिया था कि उसे भोजन मिलेगा। घण्टी के प्रति कुत्ते की इस प्रतिक्रिया को पावलव ने ‘सम्बद्ध सहज क्रिया’ की संज्ञा दी। कुत्ते के समान बालक और व्यक्ति भी सम्बद्ध सहज क्रिया द्वारा सीखते हैं। पके हुए आमों या मिठाई को देखकर बालकों के मुँह में पानी आ जाता है। उल्टी करना अनेक व्यक्तियों में सहज-क्रिया है, पर अनेक में यह सम्बद्ध सहज-क्रिया भी है। पहाड़ पर बस में यात्रा करते समय कुछ व्यक्ति उल्टी करने लगते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनको यात्रा प्रारम्भ होने से पहले ही उल्टी होने लगती है। कुछ लोग दूसरों को उल्टी करते हुए देखकर उल्टी करने लगते हैं।

3. सिद्धान्त के गुण या विशेषताएँ

सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त बालकों की शिक्षा में के बहुत सिद्ध हुआ है। इसकी पुष्टि में निम्नांकित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं- (i) यह सिद्धान्त, सीखने की स्वाभाविक विधि बताता है। अत: यह बालकों को शिक्षा देने में सहायता उपयोगी देता है। (ii) यह सिद्धान्त, बालकों की अनेक क्रियाओं और असामान्य व्यवहार की व्याख्या करता है। (iii) यह सिद्धान्त, बालकों के समाजीकरण और वातावरण से उनका सामंजस्य स्थापित करने में सहायता देता है। (iv) इस सिद्धान्त का प्रयोग करके बालकों के भय सम्बन्धी रोगों का उपचार किया जा सकता है। (v) समाज-मनोविज्ञान के विद्वानों के अनुसार, इस सिद्धान्त का समूह के निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। (vi) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों में अच्छे व्यवहार और उत्तम अनुशासन की भावना का विकास किया जा सकता है।” (vii) क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, “यह सिद्धान्त उन विषयों की शिक्षा के लिए बहुत उपयोगी है, जिसमें चिन्तन की आवश्यकता नहीं है, जैसे—सुलेख और अक्षर-विन्यास।” (viii) स्किनर (Skinner A.) के शब्दों में, “सम्बद्ध सहज-क्रिया आधारभूत सिद्धान्त है, जिस पर सीखना निर्भर रहता है।”

प्रबलन-सिद्धान्त (REINFORCEMENT THEORY)

‘प्रबलन-सिद्धान्त’ का प्रतिपादन सी. एल. हल (C. L. Hull) नामक अमरीकी मनोवैज्ञानिक ने 1915 में अपनी पुस्तक ‘ Principles of Behaviour ‘ में किया था। उसका यह सिद्धान्त थार्नडाइक (Thorndike) और पावलव (Pavlov) के सिद्धान्तों पर आधारित है।

हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्टोन्स (Stones) ने लिखा है-सीखने का आधार, आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। यदि कोई कार्य, पशु या मानव की किसी आवश्यकता को पूर्ण करता है, तो वह उसको सीख लेता है। ‘आवश्यकता की पूर्ति’ (Need Satisfaction) के लिए हल (Hull) ने ‘आवश्यकता की कमी’ (Need Reduction) का प्रयोग किया है। ‘आवश्यकता की पूर्ति’ किस प्रकार सीखने की प्रक्रिया का आधार है, इसको स्टोन्स (Stones) ने एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। एक भूखा पशु पिंजड़े में बन्द है। पिंजड़े के बाहर भोजन रखा है। पिंजड़ा खटके को दबाने से खुलता है। अपनी भूख को सन्तुष्ट करने के लिए पशु क्रियाशील होता है। भोजन उसकी क्रियाशीलता को बलवती बनाता है अर्थात् प्रबलन (Reinforce) करता है। अत: वह पिंजड़े से बाहर निकलने के लिए सभी प्रकार के प्रयास करता है। अपने प्रयासों के फलस्वरूप वह खटके को दबाकर निकलना सीख जाता है। इस प्रकार भोजन की आवश्यकता को सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया द्वारा वह पिंजड़े को खोलना सीख जाता है। सीखने का आधार यही है।

हल (Hull) का कथन है-“सीखना आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया के द्वारा होता है।”

“Learning takes place through a process of need reduction.” -Hull, Quoted by Stones

2. सिद्धान्त के गुण तथा विशेषताएँ

हल (Hull) के सीखने के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

(i) आदर्श व सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त (Ideal and Most Elegant Theory) -स्किनर (Skinner) ने इस सिद्धान्त को वैज्ञानिक होने के कारण आदर्श सिद्धान्त माना है और लिखा है-“अब तक सीखने के जितने भी सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें यह सर्वश्रेष्ठ है।”

(ii) चालक-न्यूनता सिद्धान्त (Drive Reduction Theory) -स्किनर (Skinner) के अनुसार, “हल का सीखने का सिद्धान्त चालक-न्यूनता का सिद्धान्त है।” (“Hull’s theory of learning is a drive-reduction theory.”) हल (Hull) का कहना है कि जब प्राण की कोई आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तब उसमें असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ-भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर प्राणी में तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसके फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है। साथ ही भूख का चालक (Drive) उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देता है। कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट हो जाती है। इसके फलस्वरूप भूख के चालक की शक्ति कम हो जाती है।

(iii) उद्दीपक प्रतिक्रिया सिद्धान्त (S. R. Theory) -स्किनर (Skinner) के अनुसार, “हल का सिद्धान्त, उद्दीपक-प्रतिक्रिया का सिद्धान्त है।” (“Hull’s theory is a stimulus-response theory.”) भूख या भोजन-उद्दीपक का कार्य करता है, जिसके कारण व्यक्ति विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है।

(iv) प्राथमिक व द्वितीयक प्रबलन (Primary and Secondary Reinforcement) -हल (Hull) ने प्रबलन के दो रूप बताये हैं, जो विभिन्न अवस्थाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। भोजन भूख के चालक को प्रबल बनाता है। यह अवस्था प्राथमिक प्रबलन (Primary Reinforcement) की है। पर भूख उस समय तक शान्त नहीं होती है, जब तक भोजन खा नहीं लिया जाता है। अत: भोजन खाने से पहले भूख का चालक फिर प्रबल हो जाता है। यह अवस्था द्वितीयक प्रबलन (Secondary Reinforcement) की है।

(v) प्रेरणा पर बल (Stress on Motivation) -यह सिद्धान्त बालकों के शिक्षण में प्रेरणा पर अत्यधिक बल देता है, क्योंकि बालकों को प्रेरित करके ही उनके ज्ञान की आवश्यकता को पूर्ण किया जा सकता है

(vi) बालकों की क्रियाओं व आवश्यकताओं का सम्बन्ध (Association of Children’s Activities and Needs) -इस सिद्धान्त की सबसे महत्त्वपूर्ण देन यह है कि यह बालकों की क्रियाओं और आवश्यकताओं में सम्बन्ध स्थापित किये जाने पर बल देता है। उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त उनकी क्रियाओं का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध होना चाहिए। आधुनिक शिक्षा इन दोनों तथ्यों को स्वीकार करती है।

3. निष्कर्ष

आज तक प्रतिपादित किये जाने वाले सीखने के सिद्धान्तों में हल (Hull) के सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट स्वीकार करते हुए स्किनर (Skinner) ने लिखा है-“हल का कहना है कि सीखने का कारण किसी आवश्यकता का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूर्ण होना होता है। अतः कुछ दृष्टियों से आधुनिक शिक्षा को हल के सिद्धान्त में एक सैद्धान्तिक आधार मिल जाता है।”

सीखने के सूझ का सिद्धान्त (INSIGHT THEORY OF LEARNING)

गैस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों द्वारा सूझ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया विशेषकर कोहलर (Kohler,1925) तथा कोफ्का , 1924 द्वारा। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति किसी प्रक्रिया को सूझ या अन्त:दृष्टि (insight) द्वारा सीखता है। जब बालक किसी पाठ को सीखता है तो वह सीखने से सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष को समझने का प्रयत्न करता है। इस कोशिश में वह परिस्थिति के विभिन्न पहलुओं का नए ढंग से प्रत्यक्षण कर संगठित करने का प्रयत्न करता है ताकि समस्या का आसानी से समाधान हो सके। जब वह परिस्थिति के अनुसार नए ढंग से प्रत्यक्षण कर आपसी सम्बन्धों को समझ जाता है तो अचानक ‘सूझ’ उत्पन्न होती है। इस सूझ को अभ्यास (Practice) की जरूरत नहीं होती है। फर्नाल्ड तथा फर्नाल्ड (Fernald & Fernald, 1979) के शब्दों में, “सूझ से कोहलर का तात्पर्य इस बात से था कि समस्या का समाधान उद्दीपन अनुक्रिया सम्बन्धों को धीरे-धीरे बनने से नहीं होता है बल्कि उद्दीपन के बीच के सम्बन्धों को अचानक समझने से होता है।”

ऐसा माना जाता है कि जैसे ही व्यक्ति में सूझ आती है वैसे ही वह अनुक्रिया करना सीख लेता है। कोहलर एवं कोफ्का (Kohler & Koffka) की इस विवेचना से स्पष्ट होता है कि सीखना धीरे-धीरे नहीं बल्कि एकाएक होता है क्योंकि यह सूझ द्वारा होता है जो सहसा होता है न कि अभ्यास (Practice) तथा भूल एवं प्रयत्न द्वारा होता है। कोहलर ने बन्दर, कुत्ता, मुर्गी पर प्रयोग किए हैं परन्तु उनके द्वारा 1913 से 1918 के बीच कैनरी द्वीप में ‘सुल्तान’ (Sultan) नामक वनमानुष पर किया गया प्रयोग सर्वाधिक प्रचलित प्रयोग–कोहलर के सबसे बुद्धिमान ‘वनमानुष’ का नाम ‘सुल्तान’ (Sultan) था उस पर उन्होंने दो प्रयोग किए-

कोहलर के वनमानुष पर प्रयोग

  • छड़ी समस्या पर प्रयोग
  • बॉक्स समस्या पर प्रयोग

1. छड़ी समस्या पर प्रयोग (Experiment of Stick Problem) -छड़ी समस्या में एक भूखे सुल्तान नामक वनमानुष को पिंजड़े में बन्द कर दिया गया। पिंजड़े के बाहर मेज पर केला रख दिया गया था और पिंजड़े के अन्दर दो छड़ रख दी गई थीं। इन छड़ों की बनावट ऐसी थी कि वे एक-दूसरे से जुड़ जाती थीं। केले को बाहर रखा देखकर सुल्तान ने अपने हाथ से फिर पैर से तथा बारी-बारी से दोनों छड़ियों के सहारे केले को पिंजड़े के अन्दर खींच लेने का प्रयास किया परन्तु उसे असफलता प्राप्त हुई क्योंकि पिंजड़े की दूरी केले से अधिक थी। निराश होकर उसने पिंजड़े के आस-पास देखना शुरू कर दिया और अन्त में दोनों छड़ियों की सहायता से खेलना प्रारम्भ कर दिया। इस खेल के सिलसिले में दोनों छड़ी अचानक एक-दूसरे से जुड़ गईं। इनके परिणामस्वरूप वनमानुष में उत्साह व खुशी देखने को मिली और लम्बी छड़ी की सहायता से ‘उसने मेज पर रखे केले को खा लिया। जब बाद में यह प्रयोग दोबारा दोहराया गया तो सुल्तान ने तुरन्त छड़ियों को जोड़कर मेज पर रखे केले को खींचकर खा लिया। चित्र कोहलर द्वारा छड़ी समस्या पर किया गया प्रयोग

2. बॉक्स समस्या का प्रयोग सुल्तान को इस प्रयोग में एक बड़े कमरे में बन्द कर दिया गया और उसकी छत से केला लटका दिया गया और कमरे में एक कोने में तीन बक्से रख दिये गये। सुल्तान भूखा था और जैसे ही उसकी नजर केले पर गई वह खुशी के मारे उछल-कूद करने लगा वह उछल-कूद करके उस केले को पाने का प्रयत्न कर रहा था। लेकिन केला ऊँचाई पर होने के कारण वह बार-बार प्रयत्न करने पर भी उसे पाने में असमर्थ रहा था। फिर उसका ध्यान कोने में रखे बक्सों पर गया और उसने बक्सों को लटकते हुए केले के नीचे लाकर रखा। इस पर से वह उछलकर केला प्राप्त करना चाह रहा था परन्तु वह असमर्थ रहा। इसके बाद फिर उसने दूसरे-तीसरे बक्से को पहले बक्से के ऊपर लाकर रखा और उसने ऊपर चढ़कर उछल कर केला प्राप्त कर लिया। बाद में सुल्तान को इस तरह की प्रयोगात्मक परिस्थिति में रखने पर उसने उछल-कूद कम किया और सीधे तीनों बक्सों को एक-दूसरे पर रखकर केला प्राप्त कर लिया। चित्र-कोहलर द्वारा बॉक्स समस्या पर किया गया प्रयोग इन सिद्धान्तों से स्पष्ट होता है कि सीखना सूझ पर निर्भर होता है और सूझ परिस्थितिवश स्वयं ही उत्पन्न होती है।

सूझ द्वारा सीखने की प्रक्रिया की विशेषताएँ

(1) सूझ उत्पन्न करने के लिए समस्या का सही ढंगसे परीक्षण जरूरी है। कोहलर व कोफ्का के अनुसार, समस्यात्मक परिस्थिति को ऐसा होना चाहिए कि उसका सभी भाग या अंश प्राणी के सामने हो ताकि वह सम्पूर्ण समस्या का प्रत्यक्षण कर सके तथा उसे समझ सके। यदि समस्या का कोई भी हिस्सा था अंश छिपा रहता है तो वैसी परिस्थिति में प्राणी में सीखना सूझ से न होकर प्रयत्न व भूल से होगा।

(2) सीखने की प्रक्रिया अचानक उत्पन्न होती है क्योंकि यह सूझ पर आधारित होती है और सूझ अचानक होती है।

(3) सूझ द्वारा सीखने में व्यक्ति का ध्यान समस्यात्मक परिस्थिति के भिन्न-भिन्न भागों पर केन्द्रित होता है। वह समस्या के समाधान के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का व्यवहार एक के बाद एक सोच-समझकर करता है। वनमानुष द्वारा केला प्राप्त करने के लिए पिंजड़े से हाथ बढ़ाना, पैर बढ़ाना, फिर छड़ी बढ़ाना आदि कुछ अन्वेषणात्मक व्यवहार के उदाहरण हैं। सूझ पैदा होने पर प्राणी को ज्ञान हो जाता है कि इनमें सभी व्यवहार अर्थपूर्ण नहीं थे।

(4) सूझ व्यक्ति के अन्दर स्वत: व अचानक उत्पन्न होती है। कोहलर का कहना है, जब प्राणी समस्या का समाधान करने के प्रयास में शिथिल हो जाता है तो वह समस्या समाधान के लिए प्रयत्न करने लगता है। इन प्रयत्नों के परिणामस्वरूप अपने आप सूझ उत्पन्न हो जाती है और समस्या का समाधान मिल जाता है।

(5) सूझ से पहले निष्क्रियता की अवस्था देखने को मिलती है। इस अवस्था से उसमें शिथिलता आ जाती है जैसे जब वनमानुष उछल-कूद कर छत से लटकते केला प्राप्त नहीं कर सका, तो थोड़ी देर के लिए निष्क्रिय होकर चुपचाप बैठ गया।

(6) कोहलर का मानना है कि प्राणी ने समस्या का समाधान करना सूझ द्वारा सीखा है या नहीं इसकी जाँच स्थानान्तरण (transfer) द्वारा सहजता से की जा सकती है अगर सूझ द्वारा सीखा है तो उसमें स्थानान्तरण का गुण जरूर होता है लेकिन अगर प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखा गया है तो उसमें स्थानान्तरण का गुण नहीं दिखाई देता है। कोहलर ने अनेक ऐसे परीक्षण किए जिनमें वनमानुष ने स्थानान्तरण का गुण दिखाया।

सुल्तान ने जब बक्सों को एक-दूसरे पर रखकर केले को लेना सीख लिया तो तब एक दूसरी समस्या में सीढ़ी के साथ कमरे में रखा सीढ़ी पर केला लटक रहा था लेकिन सुल्तान ने आसानी से सीढ़ी पर चढ़कर केला ले लिया और इस प्रकार वनमानुष ने अपने ज्ञान का स्थानान्तरण किया। सूझ के इस सिद्धान्त से स्पष्ट हो जाता है कि सीखने की प्रक्रिया जब सूझ (insight) द्वारा है तो वह अचानक होती है क्योंकि व्यक्ति में सूझ अचानक ही विकसित होती है।

कोहलर के सूझ सिद्धान्त का शैक्षिक महत्त्व व मूल्यांकन(EDUCATIONAL IMPLICATION AND EVALUATION OF KOHLER’S INSIGHT THEORY)

कोहलर का सिद्धान्त शैक्षिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस सिद्धान्त की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं-

(1) छात्रों में सूझ उत्पन्न करने के लिए शिक्षक को पाठ के सभी अंशों व पहलुओं का निरीक्षण करना चाहिए व छात्र और विषय के भिन्न-भिन्न अंशों के बीच प्रत्यक्षणात्मक सम्बन्ध को समझाना चाहिए। अगर पाठ का कोई अंश छात्रों से छिपा रहेगा तो छात्र अपने प्रत्यक्षणात्मक सम्बन्ध को विकसित नहीं कर पायेंगे। (2) सूझ द्वारा सीखे गये ज्ञान का हम स्थानान्तरण कर सकते हैं। शिक्षकों को चाहिए कि वे कक्षा में इस ढंग का वातावरण कायम करें कि छात्र सूझ द्वारा ही विभिन्न विषयों; जैसे—विज्ञान, इतिहास, भूगोल, आदि को सीखें। इससे छात्र की समायोजन शक्ति बढ़ती है।

सूझ सिद्धान्त के दोष

(1) यह सिद्धान्त केवल सूझ के महत्त्व पर ही रोशनी डालता है और साथ ही साथ यह भी दावा करता है कि सभी उम्र के छात्र सूझ सिद्धान्त द्वारा किसी भी विषय को सीख सकते हैं लेकिन यह सच नहीं है क्योंकि सीखने में अनुभूति, रुचि व अभ्यास का भी स्थान होता है और मनोवैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि छोटे-छोटे शिशुओं के सीखने में सूझ का कोई खास महत्त्व नहीं होता क्योंकि वह रटकर या अभ्यास द्वारा ही सीखते हैं। (2) इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने की प्रक्रिया अचानक होती है। लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि वास्तव में छात्र किसी भी विषय को अचानक नहीं सीखते हैं। इसके लिए उन्हें धीरे-धीरे अभ्यास करना पड़ता है। इन दोषों के बाद भी शिक्षा में सूझ सिद्धान्त के महत्त्व को स्वीकार किया गया है।

क्रिया-प्रसूत अधिगम सिद्धान्त (SKINNER’S OPERANT CONDITIONING THEORY)

सीखने के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में बी. एफ. स्किनर (B.F. Skinner) ने विशेष योगदान किया है। स्किनर ने दो प्रकार की क्रियाओं पर प्रकाश डाला—क्रिया-प्रसूत (Operant) तथा उद्दीपन प्रसूत (Stimulus)। जो क्रियाएँ उद्दीपन के द्वारा होती हैं वे उद्दीपन आधारित होती हैं। क्रिया-प्रसूत का सम्बन्ध उत्तेजना से होता है।

(1) बी. एफ. स्किनर के प्रयोग (Experiments by B.F. Skinner)

बी. एफ. स्किनर ने अधिगम या सीखने के क्षेत्र में अनेक प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि अभिप्रेरणा (Motivation) से उत्पन्न क्रियाशीलता (Operant) ही सीखने के लिए उत्तरदायी है। स्किनर ने चूहों तथा कबूतरों, आदि पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि प्राणियों में दो प्रकार के व्यवहार पाये जाते हैं—अनुक्रिया (Respondent) तथा क्रिया-प्रसूत (Operant)। अनुक्रिया का सम्बन्ध उत्तेजना से होता है और क्रिया-प्रसूत का सम्बन्ध किसी ज्ञात उद्दीपन से नहीं होता। क्रिया-प्रसूत को केवल अनुक्रिया की दर से मापा जा सकता है। स्किनर ने चूहों पर प्रयोग किये। उसने लीवर (Lever) वाला बक्सा बनवाया। लीवर पर चूहे का पैर पड़ते ही खट् की आवाज होती थी। इस ध्वनि को सुन चूहा आगे बढ़ता और उसे प्याले में भोजन मिलता।

यह भोजन चूहे के लिए प्रबलन (Reinforcement) का कार्य करता। चूहा भूखा होने पर प्रणोदित (Drived) होता और लीवर को दबाता। उस प्रयोग से स्किनर ने यह निष्कर्ष निकाले

1. लीवर दबाने की क्रिया चूहे के लिए सरल हो गई। 2. लीवर बार-बार दबाया जाता, अत: निरीक्षण सरल हो गया। 3. लीवर दबाने में अन्य क्रिया निहित नहीं थी। 4. लीवर दबाने की क्रिया का आभास हो जाता था।

निष्कर्ष यह है कि “यदि किसी क्रिया के बाद कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपन मिलता है तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।” स्किनर ने कबूतरों पर भी क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन (Operant Conditioning) के प्रयोग किये। स्किनर द्वारा बनाये गये बक्से में कबूतरों को लीवर या कुंजी को दबाना सिखाना था। पहले तो बक्से में हल्की प्रकाश व्यवस्था की गई। यह प्रयोग विभिन्न प्रकार की छ: प्रकाश योजनाओं के अन्तर्गत किया गया। प्रयोगों का सामान्य सिद्धान्त यह निरूपित हुआ कि नवीन तथा पुराने, दोनों प्रकार के उद्दीपनों में क्रिया-प्रसूत की गई। प्रकाश व्यवस्था में परिवर्तन होने पर अनुक्रिया में आनुपातिक परिवर्तन हुआ।

(2) क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त (Theory of Operant Conditioning)

एम. एल. बिगी (M. L. Bigge) ने स्किनर के क्रिया प्रसूत सिद्धान्त के विषय में कहा है-“क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन अधिगम की एक प्रक्रिया है जिसमें सतत् या सम्भावित अनुक्रिया होती है। ऐसे समय क्रिया-प्रसूतता की क्ति बढ़ जाती है।” “Operant Conditioning is the learning process where by a response is made more probable or more frequent an operant is strengthened.” -M. L. Bigge, Learning Theories for Teachers

प्रयोगों के परिणामों के आधार पर बी. एफ. स्किनर (B. F. Skinner) ने कहा है-व्यवहार प्राणी या उसके अंश की किसी सन्दर्भ में गति है, यह गति या तो प्राणी में स्वयं निहित होती है अथवा किसी बाहरी उद्देश्य या शक्ति के क्षेत्र से आती है। “Behaviour is the movement of an organism or of its part in a frame of reference provided by the organism itself or by external objects or field or force.”   -B. F. Skinner, The Behaviour of Organism

(3) क्रिया-प्रसूत अनुबन्ध और शिक्षा (Operant Conditioning and Education)

क्रिया-प्रसूत अधिगम का शिक्षा में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है- 1. सीखने का स्वरूप प्रदान करना (Shaping the Behaviour of Learning) -शिक्षक, इस सिद्धान्त के द्वारा सीखे जाने वाले व्यवहार को स्वरूप प्रदान करता है। वह उद्दीपन पर नियन्त्रण करके वांछित व्यवहार का सृजन करता है। 2. शब्द-भण्डार (Vocabulary) -इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों के शब्द-भण्डार में वृद्धि के लिए किया जा सकता है। 3. अभिक्रमित अधिगम (Programmed Learning) -सीखने के क्षेत्र में अभिक्रमित अधिगम एक महत्त्वपूर्ण विधि विकसित हुई है। इस विधि को क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन द्वारा गति प्रदान की जा सकती है। 4. निदानात्मक शिक्षण (Remedial Training)- क्रिया-प्रसूत सिद्धान्त जटिल (Complex) व्यवहार वाले तथा मानसिक रोगियों को वांछित व्यवहार के सीखने में विशेष रूप में सहायक हुआ है। 5. परिणाम की जानकारी (Knowledge of Result)- स्किनर का विचार है कि यदि व्यक्ति को कार्य के परिणामों की जानकारी हो तो उसके सीखने में भावी व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। गृहकार्य के संशोधन का भी छात्र के सीखने की गति तथा गुण पर प्रभाव पड़ता है। 6. पुनर्बलन (Reinforcement)- क्रिया-प्रसूत अधिगम में पुनर्बलन का महत्त्व है। अधिकाधिक अभ्यास द्वारा क्रिया को बल मिलता है। 7. सन्तोष (Satisfaction)- स्किनर कहता है कि जब भी काम में सफलता मिलती है तो सन्तोष प्राप्त होता है और यह सन्तोष क्रिया को बल प्रदान करता है। 8. पद विभाजन (Small Steps)- क्रिया-प्रसूत अधिगम में सीखी जाने वाली क्रिया को अनेक छोटे- मोटे पदों में विभक्त किया जाता है। शिक्षा में इस विधि के प्रयोग से सीखने में गति तथा सफलता, दोनों मिलते हैं।

(4) निष्कर्ष (Conclusion)

क्रिया-प्रसूत अधिगम का आधार अनुकूलन (Conditioning) है। स्किनर ने क्रिया-प्रसूत (Operant) के आधार पर अनुकूलन के सिद्धान्त को आगे बढ़ाया है। यह निरीक्षणात्मक अधिगम है। यह सिद्धान्त मनोरोगियों, पशु-पक्षियों तथा बालकों पर तो लागू होता है, विवेकशील प्राणियों पर नहीं।

अधिगम/सीखने का सिद्धान्त (Theories of Learning)

सीखने के अन्य सिद्धान्त 

ब्रूनर के सीखने का सिद्धान्त शिक्षा के दृष्टिकोण से (BRUNER’S THEORY OF LEARNING FROM POINT OF VIEW OF EDUCATION)

बुनर ने सीखने के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे हम आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Present Day Cognitive Theory) की श्रेणी में रखते हैं। उनका सिद्धान्त शिक्षा जगत में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह सिद्धान्त छात्रों द्वारा किये गये उन सभी व्यवहारों को मद्देनजर रखते हुए किया गया जो सीखने से सम्बन्धित हैं। जीरोम ब्रूनर के सिद्धान्त की व्याख्या को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है- (1) अन्तर्दर्शी चिन्तन बनाम विश्लेषण चिन्तन (2) पाठ की संरचना (3) अन्वेषणात्मक सीखना (4) सम्बद्धता का महत्त्व (5) तत्परता (6) शिक्षार्थी द्वारा स्वयं कार्य करने की उपयोगिता

(1) अन्तर्दर्शी चिन्तन बनाम विश्लेषणात्मक चिन्तन (Tnuitive Thinking vs. Analysis Thinking)

ब्रूनर का ऐसा मानना है कि शिक्षण कार्य में अध्यापक द्वारा अन्तर्दर्शी चिन्तन पर विश्लेषणात्मक चिन्तन की अपेक्षा बहुत कम ध्यान दिया जाता है। जबकि अन्तर्दर्शी चिन्तन किसी भी विषय को सीखने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किसी भी पाठ का तत्कालिक ज्ञान या संज्ञान (cognition) को ही अन्तर्दर्शन कहा जाता है। ब्रूनर के अनुसार अन्तर्दर्शी समझ या ज्ञान को शिक्षक प्रोत्साहित न करके हतोत्साहित करते देखे गये हैं। ब्रूनर (Bruner, 1960) के अनुसार, “अन्तर्दर्शन से तात्पर्य वैसे व्यवहार से होता है जिसमें अपने विश्लेषणात्मक उपायों पर बिना किसी तरह की निर्भरता दिखाए ही किसी परिस्थिति या समस्या की संरचना, अर्थ व महत्त्व को समझा जाता है।” “Instution implies the act of grasping the meaning, significance or structure of a problem or situation without explicit reliance on the analytic apparatus of one’s craft.” -Bruner जब अध्यापक छात्रों के अन्तर्दर्शी चिन्तन को हतोत्साहित करते हैं तथा विश्लेषणात्मक चिन्तन को प्रोत्साहित करते हैं तो इससे कक्षा के शिक्षण की गति मन्द हो जाती है।

(2) पाठ की संरचना (Structure of Discipline)

ब्रूनर के अनुसार प्रत्येक विषय के कुछ नियम व विधियाँ होती हैं जिन्हें बालकों द्वारा सीखना आवश्यक होता है। इन्हीं को सीखने के बाद वह वस्तुओं का सही प्रयोग कर पाएँगे।

(3) अन्वेषणात्मक सीखना (Discovery Learning)

ब्रूनर ने इस बात पर जोर दिया है कि किसी भी विषय या पाठ को सीखने की उत्तम विधि अन्वेषण द्वारा सीखना है। दूसरे शब्दों में, छात्र को समस्या के विभिन्न पक्षों पर स्वत: ही आगमनात्मक चिन्तन (inductive thinking) करके विषय से सम्बन्धित संप्रत्ययों के अर्थ एवं सम्बन्धों की खोज करनी चाहिए। अध्यापकों को मान लेना चाहिए कि ज्ञान आत्म-अन्वेषित होता है। ऐसा ज्ञान जो छात्रों द्वारा आत्म-अन्वेषित होता है उनके लिए बहुत उपयोगी होता है।

(4) संबद्धता का महत्त्व

ब्रूनर के मतानुसार विद्यालय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य छात्रों के भविष्य को उज्ज्वल बनाना है। अपनी पुस्तक ‘दे रेलिवेन्स ऑफ एजूकेशन’ (The Relevance of Education) में ब्रूनर ने दो प्रकार की संबद्धता का उल्लेख किया है—व्यक्तिगत संबद्धता (Personal relevance) और सामाजिक संबद्धता (Social relevance)। ब्रूनर ने कहा शिक्षा सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के भी अनुरूप होनी चाहिए।

(5) तत्परता (Readiness)

ब्रूनर के अनुसार प्रत्येक कक्षा के लिए पाठ्यक्रम तैयार करके छात्रों को उस पाठ्यक्रम के अनुसार उनमें क्षमता विकसित करना अच्छी प्रथा नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि किसी भी उम्र या वर्ग के छात्र को कोई भी विषय सीखने के लिए तत्पर (Ready) किया जा सकता है। अत: ब्रूनर के अनुसार प्राध्यापकों का प्रमुख कार्य अनुरूप पाठ्यक्रम तैयार करना है।

(6) शिक्षार्थियों द्वारा स्वयं कार्य करने की उपयोगिता (Importance of Learner’s Doing Things)

ब्रूनर का मत है कि छात्रों को सीखने की परिस्थिति में निष्क्रिय न होकर सक्रिय रूप से हिस्सा लेना चाहिए। इससे दो लाभ होते हैं—पहला तो यह कि छात्र पाठ को अच्छी तरह समझ जाता है, दूसरा यह कि वह पाठ को जल्दी सीख लेता है तथा इसे अधिक समय तक याद रखा जा सकता है।

सिद्धान्त के दोष

(1) अन्वेषणात्मक सीखना एक ऐसी विधि है जिससे सिर्फ समय की बर्बादी होती है और किसी भी अध्यापक से यह उम्मीद करना सही नहीं होगा कि वे कक्षा में प्रत्येक विषय को अन्वेषणात्मक सीखना को बिन्दु मानकर अध्यापन करेंगे। (2) ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित विषय की संरचना जैसे संप्रत्यय अपने आप में अस्पष्ट हैं। इस तरह की संरचना की बात करके ब्रूनर कुछ वैसे पाठ्यक्रमों की ओर संकेत करना चाहते थे जिनके सीखने से छात्रों में तार्किक चिन्तन की क्षमता विकसित होती है। परन्तु आलोचकों का कहना है कि इस दंग की संरचना सिर्फ उन कक्षाओं में अधिक ढंग से कार्य कर पाती है जिसके छात्रों में पर्याप्त अभिप्रेरण हो। ऐसे छात्र जिनमें अभिप्रेरण की मात्रा औसत या औसत से कम होती है उनमें इस ढंग की संरचना की बात करना उचित नहीं होगा।

इन दोषों के बावजूद शिक्षा में इस सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि यह सिद्धान्त विद्यालयीय बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है।

आसूबेल के सीखने के सिद्धान्त : शिक्षा के दृष्टिकोण से (AUSUBEL’S THEORY OF LEARNING : FROM THE POINT OF VIEW OF EDUCATION)

डेविड आसूबेल ने सीखने के संज्ञानात्मक सिद्धान्त (Cognitive theory) का निर्माण किया। इसे संज्ञानात्मक सिद्धान्त इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस सिद्धान्त का मूल उद्देश्य सीखते समय व्यक्ति में क्या होता है का वर्णन करना होता है। इस सिद्धान्त में यह बताने का प्रयत्न किया जाता है कि सीखने की प्रक्रिया में जब नए पाठ को विद्यार्थी पूर्व ज्ञान के साथ जोड़ते हैं तो उस नए पाठ का उस पर क्या प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान के भण्डार को संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है और जब विद्यार्थी इस संज्ञानात्मक संरचना में नए पाठ से सीखी गई अनुभूतियों को सार्थक तरीके से जोड़ता है तो उसे आत्मसात्करण (assimilation) की संज्ञा दी जाती है।

यह सिद्धान्त कक्षा शिक्षण, अर्थपूर्ण सीखने व शाब्दिक सामग्री से सम्बन्ध रखता है। आसूबेल (Ausubel) ने सीखने के सिद्धान्त के चार प्रकार बताये हैं- (1) अर्थपूर्ण सीखना (4) अन्वेषण सीखना (2) अभिग्रहण सीखना (3) रटकर सीखना

(1) अर्थपूर्ण सीखना (Meaningful Learning)

अर्थपूर्ण सीखने को आसूबेल ने अर्थपूर्ण आत्मसात्करण (Meaningful assimilation) कहा है। आत्मसात्करण की प्रक्रिया में बालक किसी भी विषय या पाठ को समझकर आत्मसात करता है व उसक सम्बन्ध पूर्व ज्ञान से जोड़ देता है। आसूबेल ने अर्थपूर्ण सीखने के लिए दो बातों का होना आवश्यक माना है-अर्थपूर्ण सीखने की मानसिक तत्परता (Meaningful learning set) और अर्थपूर्ण विषय (Meaningful material)। अध्यापकों को चाहिए कि पढ़ाये जाने वाले विषय का चयन संगठन एवं प्रस्तुतीकरण इस तरीके से करें कि विद्यार्थी के लिए अधिक-से-अधिक अर्थपूर्ण हो सके। अध्यापक बालकों में ऐसी मानसिक तत्परता पैदा कर सकते हैं जिससे वह अर्थपूर्ण ढंग से सीखने के लिए प्रेरित हो सकें।

(2) अभिग्रहण सीखना (Reception Learning)

सीखने की इस विधि में विद्यार्थी को सीखने वाली सामग्री बोलकर या लिखकर दे दी जाती है और विद्यार्थी उन सामग्रियों को आत्मसात कर लेता है। अधिकतर यह समझा जाता है कि अभिग्रहण सीखना सिर्फ रटकर ही सम्भव है। लेकिन आसूबेल ने यह सिद्ध किया है कि अभिग्रहण रटकर ही नहीं वरन् समझकर भी हो सकता है। अभिग्रहण सीखना दो प्रकार का होता है- (i) रटकर अभिग्रहण सीखना (Rote reception learning) (ii) अर्थपूर्ण अभिग्रहण सीखना (Meaningful reception learning)

(3) रटकर सीखना (Rote Learning)

रटकर सीखने में विद्यार्थी पाठ का अर्थ समझे बिना ही पाठ को बार-बार दोहराकर सीखते हैं। निरर्थक पदों (nonsense syllables) को सीखना अक्षर अंक युग्म को सीखना, छोटे-छोटे शिशुओं द्वारा नर्सरी राइम (nursery rhyme) को सीखना इसके उदाहरण हैं।

(4) अन्वेषण सीखना (Discovery Learning)

अन्वेषण द्वारा सीखना में छात्र दी गई सामग्री में से नया सम्प्रत्यय (concept) या नया नियम या विचार की खोज करता है और फिर उसे सीखता है। असूबेल ने अन्वेषण सीखने के दो प्रकार बताये हैं- (i) रटकर अन्वेषण सीखना। (ii) अर्थपूर्ण अन्वेषण सीखना।

उदाहरण- यदि कोई विद्यार्थी दिये गये उत्तरों में खोजकर इस अधूरे वाक्य ‘भारत का संविधान……… निर्मित हुआ था।’ को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है तो ऐसा अन्वेषण सीखने का उदाहरण होगा लेकिन रटकर पूर्ण हुआ माना जायेगा लेकिन यदि ज्ञात तथ्यों को पुनर्संगठित कर कोई प्रयोग कर नए नियम की खोज करता है तो ऐसा अन्वेषण सीखना कहा जाएगा जो अर्थपूर्ण प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न हुआ है।

आसूबेल ने अर्थपूर्ण सीखने की प्रक्रिया को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है और कहा है कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा विद्यार्थी समझ बूझकर नये सीखे गए पाठ या विषय को अपनी संज्ञानात्मक संरचना में आत्मसात कर लेते हैं असूबेल के अनुसार आत्मसात्करण निम्नांकित चार प्रकार से किए जाते हैं-

(i) अधीनस्थ सीखना (Subordinate learning)- इस सीखने में विद्यार्थी किसी सामान्य नियम के तहत कोई नई चीज सीखता है। जैसे जब छात्र यह सीखते हैं कि ‘रत्नाकर’, ‘नीरधि’, ‘पयोधि’ तीनों का अर्थ समुद्र होता है। परन्तु वे समुद्र शब्द की तुलना में बहुत कम महाप्रयोग किए जाते हैं, यही अधीनस्थ सीखना कहलाता है। (ii) महाकोटि सीखना (Superordinate learning) -इसमें विद्यार्थी एक नया सम्प्रत्यय सीखता है जिसमें पहले से सुस्पष्ट कई विचार सम्मिलित होते हैं। दूसरे शब्दों में, जब विद्यार्थी कई सम्प्रत्ययों को एक साथ करके कोई नया सम्प्रत्यय सीख लेता है तो इसे महाकोटि सीखना कहते हैं। उदाहरणत: विद्यार्थी गाय, कुत्ता, भैंस, बकरी, आदि के आधार पर एक नया सम्प्रत्यय जैसे पालतू पशु सीख लेता है तो इसे महाकोटि सीखना कहते हैं। (iii) सह-सम्बन्धात्मक सीखना (Correlative learning) –विद्यार्थी इस तरीके से सीखता है कि पहले सीखे सम्प्रत्ययों एवं नियमों का एक तरह परिमार्जन विवर्धन होता है। जैसे—यदि कोई विद्यार्थी पहले से यह जानता है कि ‘देशप्रेम’ का अर्थ क्या होता है तथा ‘देशप्रेम’ के व्यवहार जैसे राष्ट्रीय गान का सम्मान, राष्ट्रीय पर्व में हिस्सा लेना, आदि को जानता है और अब वह देश की विभिन्न राष्ट्रीय सम्पत्ति को अपनी सम्पत्ति के समान रखरखाव करना शुरू कर देता है तो यह सम्बन्धात्मक सीखना कहा जाता है। (iv) संयोगात्मक सीखना (Combinational learning) –संयोगात्मक सीखने में सामान्य समरूपता (general congruence) के आधार पर विद्यार्थी पूर्व में सीखे गये विचारों के संयोग की सार्थक रूप से संज्ञानात्मक संरचना के महत्त्वपूर्ण तथ्यों के साथ सम्बन्ध जोड़ता है। कक्षा में हमें संयोगात्मक सीखने के कई उदाहरण दिखाई देते हैं। जैसे छात्र ताप, आयतन, ऊँचाई, लम्बाई के बीच जब कोई सामान्यीकरण करता है तो वह पहले सीखी गई संयोगात्मक सम्प्रत्यय का अर्थपूर्ण ढंग से वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना के साथ सम्बन्ध स्थापित किये गये का ही परिणाम होता है। इन प्रक्रियाओं द्वारा विद्यार्थी नई सामग्री को आत्मसात कर लेता है।

(4) सिद्धान्त के दोष

(1) इसमें सीखने के कई प्रकार बताये गये हैं जो आपस में परस्पर व्यापी (overlapping) हैं जिससे पाठक को सम्भ्रान्ति अधिक होती है। (2) शिक्षक इसका ठीक तरह से प्रयोग नहीं कर पाते है। (3) विद्यार्थी नए विषयों या पाठों को अपनी संज्ञानात्मक संरचना में कई तरह से आत्मसात्करण कर सकता है परन्तु उन्होंने मात्र चार तरह की प्रविधियों को ही आत्मसात्करण का आधार क्यों माना है ? यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया है।

बूनर तथा आसूबेल के सिद्धान्तों की एक तुलनात्मक समीक्षा (A COMPARATIVE REVIEW OF BRUNER’S AND AUSUBEL’S THEORIES)

ब्रूनर तथा आसूबेल ने सीखने के ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित किये जिनका शिक्षा में बहुत महत्त्व है। इन दोनों वैज्ञानिकों के सिद्धान्त में बहुत समानता पाई जाती है जो निम्नलिखित है- (1) दोनों वैज्ञानिकों का मत है कि कक्षा-शिक्षण को और उन्नत बनाने के लिए विद्यार्थियों के लिए और अधिक अर्थ बनाना है। (2) दोनों के सिद्धान्त संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं। जिनमें यह प्रयत्न किया जाता है कि विद्यार्थी का मानसिक प्रक्रियाओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाए तथा उसके बाद उसके बाह्य वातावरण (External Environment) पर तुलनात्मक रूप से कम ध्यान दिया जाए। (3) दोनों सिद्धान्तों का इशारा इस ओर है कि विद्यालय का शिक्षण (Learning) वर्तमान जटिलता के स्तर के अनुरूप होना चाहिए न कि प्रयोगशाला में सरलीकृत किए गए स्तर के अनुसार। (4) दोनों सिद्धान्तों में संगठन या संरचना का जिक्र किया गया है। ब्रूनर ने विषय की संरचना के रूप में तथा असूबेल ने संज्ञानात्मक संरचना के विषय को संगठित करने के रूप में अपने-अपने तथ्यों का वर्णन किया है। (5) दोनों सिद्धान्त सामग्री के सार तत्त्व को सीखने पर जोर देते हैं। इनका मानना है कि यदि सीखे जाने वाले सार तत्त्व को विद्यार्थी सीख लेता है तो उसे वह समझकर अन्य कई स्थानों पर भी प्रयोग कर सकता है। (6) इन सिद्धान्तों के अनुसार विद्यार्थी की मानसिक तत्परता किसी भी तरह के अर्थपूर्ण सीखने के लिए आवश्यक है। (7) दोनों सिद्धान्तों ने सीखे गए पाठों के सम्बन्ध पर जोर डाला है। ब्रूनर ने विशेष रूप से इस बात पर बल दिया है कि किसी तरह से सीखा गया नया विषय अन्य विषयों से सम्बन्धित होता है। आसूबेल ने यह दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह नए सीखे गये पाठ या विषय संज्ञानात्मक संरचना में मौजूद विचारों से जुड़ (8) इन दोनों ही सिद्धान्तों के अनुसार विद्यालय शिक्षण को उन्नत बनाने का प्रमुख तरीका शिक्षक द्वारा कक्षा में दिये जाने वाले निर्देश को उन्नत बनाना है।

समानताओं के बावजूद इनमें कुछ विषमताएँ पाई जाती हैं। असूबेल का विचार है कि विद्यार्थी में इस ढंग का अर्थपूर्ण सीखना एवं समझ मूलतः निगमनात्मक ढंग से विकसित होती है। जबकि ब्रूनर के अनुसार- अर्थपूर्ण सीखना तथा समझ जो कक्षा शिक्षण का आधार है की प्राप्ति शिक्षार्थी आगमनात्मक ढंग से करते हैं।

अनुकरण द्वारा सीखना (LEARNING BY IMITATION)

ग्रीक दार्शनिक प्लेटो तथा अरस्तू के समय ऐसा माना जाता था कि बालक अनुकरण द्वारा सीखता है। ग्रीक दार्शनिक यह मानते हैं कि शिक्षा देने में शिक्षक छात्रों के सामने अपनी समझ से उत्तम मॉडल रखते हैं जिसे छात्र प्रेक्षण कर उसका अनुकरण करते हैं और अपने जीवन को उन्नत बनाते हैं। उस समय अनुकरण की यह प्रवृत्ति जन्मजात मानी जाती थी।

सबसे पहले थार्नडाइक ने अनुकरणात्मक व्यवहार का अध्ययन किया जो निम्नलिखित है-

एक बिल्ली को एक बक्से में रख दिया गया और दूसरी बिल्ली को दूसरे पिंजड़े में। पहले बक्से में रखी बिल्ली को बाहर निकलने की प्रक्रिया सीखनी थी और पिंजरे में रखी बिल्ली पहली बिल्ली के व्यवहार का प्रेक्षण कर रही थी। बाद में पिंजरे में रखी बिल्ली को पहले बक्से में रखा तो देखा गया कि वह पहली बिल्ली के व्यवहारों का अनुकरण करने में असमर्थ रही। 1901 में थोर्नडाइक ने इसी तरह का प्रयोग बन्दर के साथ भी किया जिससे बन्दर निरीक्षण के आधार पर सीखने की प्रक्रिया को नहीं सीख पाता। जाते हैं।

वाटसन के अनुसार सीखने की प्रक्रिया सिर्फ प्रत्यक्ष अनुभव से होती है न कि परोक्ष (indirect) या प्रत्यायुक्त अनुभव से। मिलर एवं डोलार्ड की एक पुस्तक ‘सोशल लर्निंग एण्ड इमिटेशन’ (Social Learning and Imitation) प्रकाशित हुई जिसमें प्रेरणात्मक सीखना’ या अनुकरणात्मक व्यवहार द्वारा सीखने’ को एक नई दिशा प्रदान की गई। मिलर व डोलार्ड ने. अनुकरणात्मक व्यवहार को निम्नांकित तीन भागों में बाँटा है-

(1) प्रतिलिपि व्यवहार (Copying Behaviour)- प्रतिलिपि व्यवहार में एक व्यक्ति का व्यवहार दूसरे व्यक्ति द्वारा निर्देशित किया जाता है। इस तरह के व्यवहार में अन्तिम व्यवहार पुनर्बलित होता है और इसे व्यक्ति जल्द सीख लेता है जैसे कि कोई विज्ञान का अध्यापक छात्रों को कोई विशेष प्रयोग करना सिखाता है तो सुधारात्मक एवं परिणाम ज्ञान (knowledge of results) देते हैं तो यह व्यवहार प्रतिलिपि व्यवहार का उदाहरण होगा।

(2) समान व्यवहार- जब दो छात्र या व्यक्ति एक जैसी परिस्थिति में एक जैसा व्यवहार करते हैं और यह व्यवहार उनके पूर्व अनुभव पर आधारित होता है तो इस व्यवहार को समान व्यवहार कहते हैं।

उदाहरण-अधिकतर व्यक्तियों द्वारा सड़क पर लाल बत्ती देखकर रुक जाना।

(3) समेलित आश्रित व्यवहार (Matched dependent Behaviour)- इस तरह के व्यवहार में व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के व्यवहार को बिना सोचे समझे दोहराने के लिए पुनर्बलित किया जाता है। जैसे कोई भी पालतू जानवर अपने मालिक की आवाज सुनकर उसके पास चला जाता है क्योंकि उससे उसे खाना मिलता है। यह समेलित आश्रित व्यवहार होता है।

मिलर तथा डोलार्ड के अनुसार-जब छात्र कोई अनुकरणात्मक व्यवहार करता है और उसके बाद उसे पुनर्बलन मिलता है तो वह जल्द ही उस व्यवहार को सीख जाता है जो अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है। बैण्डुरा ने अपने अध्यापन के आधार पर बताया कि प्रेक्षणात्मक सीखना हर समय होता है। इसके लिए पुनर्बलन का होना अनिवार्य नहीं है। बैण्डुरा के अनुसार, प्रेक्षणात्मक सीखना में बाह्य पुनर्बलन के स्थान पर आन्तरिक पुनर्बलन अधिक प्रबल होता है। जैसे कक्षा में छात्र शिक्षक के व्यवहार का अनुकरण करते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। अगर शिक्षक स्वयं अनुशासित और गुणी है तो वह बालक के विकास में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।

मानसिक अनुशासन या औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त (THEORY OF MENTAL DISCIPLINE OR FORMAL DISCIPLINE)

1730 में सबसे पहले मनःशक्ति मनोविज्ञान ने अन्तरण की व्याख्या करने का गम्भीरतापूर्वक प्रयास किया। इस मनोविज्ञान के समर्थकों का मानना है कि इच्छा, साति, तर्कणा, प्रेक्षण, आदि होते हैं जिन्हें अभ्यास से ठीक ढंग से सुधारा या उन्नत किया आ सकता है।

मन:शक्ति मनोविज्ञान (faculty psychology) का प्रभाव शिक्षा पर इतना अधिक पड़ा है कि उस समय के शिक्षक कुछ खास-खास क्लासिकल विषय जैसे संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, गणित, आदि के अध्ययन पर इस ख्याल से अधिक बल डालने लगे क्योंकि इन कठिन एवं जटिल विषयों को पढ़ने से मस्तिष्क इतना प्रशिक्षित एवं तीक्ष्ण हो जाएगा कि शिक्षार्थियों को कक्षा से बाहर की किसी भी समस्या का समाधान करने में कोई समस्या नहीं होगी। इस विचारधारा को औपचारिक अनुशासन का सिद्धान्त’ या ‘मानसिक अनुशासन का सिद्धान्त’ कहते हैं।

इस सिद्धान्त के द्वारा तर्कशास्त्र व गणित पढ़ने में शिक्षार्थियों की तर्क शक्ति (reasoning power) बढ़ाई जाती है। देखने में आता है कि संस्कृत, लैटिन, ग्रीक पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ जाती है जिससे बाद में पढ़े जाने वाले विषयों को याद करने में आसानी होती है। औपचारिक अनुशासन या मानसिक अनुशासन का सिद्धान्त इस बात पर बल डालता है कि विद्यार्थियों को जटिल व कठिन विषयों (subjects) एवं निर्देशों को सिखाने से उनके मस्तिष्क की विभिन्न प्रकार की मन:शक्तियाँ इतनी विकसित, अनुशासित प्रशिक्षित एवं तीक्ष्ण हो जाती हैं कि उन्हें बाद में किसी भी समस्या का समाधान करने या कौशल को सीखने में एक तरह का धनात्मक अन्तरण होता है।

इस सिद्धान्त का महत्त्व आज लगभग समाप्त हो गया है। इस सिद्धान्त के तथ्यों की जाँच करने के लिए कुछ प्रयोगात्मक अध्ययन किए हैं जो निम्नलिखित हैं-

थार्नडाइक – थार्नडाइक ने जो अध्ययन किया उसमें विभिन्न विषयों को पढ़ने से विद्यार्थियों की तर्क क्षमता पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया है। उन्होंने अपने प्रयोग के परिणाम में यह पाया कि ग्रीक, लैटिन एवं गणित पढ़ने वाले छात्रों को तर्क क्षमता तथा शारीरिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की तर्क क्षमता लगभग समान ही थी जबकि मानसिक अनुशासन के सिद्धान्त के अनुसार ग्रीक, लैटिन एवं गणित पढ़ने वाले छात्रों की तर्क क्षमता शारीरिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की तर्क क्षमता से श्रेष्ठ होनी चाहिए थी। करीब-करीब इसी ढंग का परिणाम वेसमैन ने भी अपने प्रयोग में पाया है।

विलियम जेम्स (William James, 1980) ने बहुत ही रोचक प्रयोगात्मक अध्ययन कर इस सिद्धान्त के तथ्यों को गलत ठहराया है। इन्होंने अपना प्रयोग यह देखने के लिए किया कि कविता को सीखने से उनकी स्मृति उन्नत होती है या नहीं। यह प्रयोग उन्होंने अपने स्वयं के ऊपर किया था। सर्वप्रथम उन्होंने विक्टर हूगो (Victor Hugo) के  सैटायर (Satyr) की 158 पंक्तियों को याद किया और उसमें लगने वाले समय को लिख लिया इसके बाद उन्होंने मिल्टन के ‘पैराडाइज लौस्ट’ (Paradise Lost) की पंक्तियों को बहुत समय तक याद किया। इसके बाद पुनः विक्टर हूगो (Victor Hugo) के ‘सैटायर’ से ही अगली 158 पंक्तियों को याद किया और इसमें लगने वाले समय को लिख लिया। परिणाम में यह देखा कि बाद की 158 पंक्तियों को सीखने में पहले 158 पंक्तियों की अपेक्षा अधिक समय लगा और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पैराडाइज लौस्ट पर उन्होंने जो भी अभ्यास किया था उससे उनकी स्मरण शक्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई। स्पष्टतया विलियम जेम्स का यह परिणाम औपचारिक अनुशासन या मानसिक अनुशासन के सिद्धान्त के प्रतिकूल जाता है। इन आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त का अपना शैक्षिक महत्त्व है। आज भी अनेक अध्यापकों का यह मानना है कि कठिन विषयों को पढ़ने से मानसिक क्षमता बढ़ती है। जिसके परिणामस्वरूप इन छात्रों को जीवन के अधिकतर भागों में मनचाही सफलता मिलती है। शायद यही कारण है कि ऐसे शिक्षक आज भी स्कूल में पढ़ाए जाने वाले विषयों का चयन करने में इन विषयों को अन्य विषयों की तुलना में अधिक प्राथमिकता देते हैं।

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अधिगम /सीखने  का नियम 

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  • खंड-2 शिक्षार्थी को समझना

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  • इकाई-8 शिक्षण को समझना
  • खंड-3 शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया

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  • खंड-4 शिक्षक एक वृत्तिक

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❌इस सेक्शन में बीएड के छात्रों के लिए अन्य विषयों (पेपर्स) की बुक्स दी गयी हैं |❌

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Teaching Methods In Hindi – शिक्षण विधियां अर्थ, परिभाषा और महत्व

Tomy Jackson

अगर आप बीएड कर रहे हैं तो Teaching Methods के बारे में समझना आपके लिए बेहद जरूरी है । बीएड करने के पश्चात आप एक शिक्षक बनते हैं और एक शिक्षक के तौर पर पूरे जीवनकाल में हजारों बच्चों को प्रभावित करते हैं । ऐसे में आपको पता होना चाहिए कि सही शिक्षण विधि क्या होनी चाहिए और किस प्रकार छात्रों को शिक्षा दी जानी चाहिए ।

Bachelor of Education Course में विस्तार से टीचिंग मेथड्स के बारे में समझाया जाता है । इसका फायदा यह होता है कि भावी शिक्षक यह समझ पाते हैं कि किस परिस्थिति में कौनसा शिक्षण विधि सटीक है और क्यों । अगर आप बीएड कर रहे हैं तो आपके लिया यह पूरा कांसेप्ट आसान शब्दों में समझना जरूरी है क्योंकि यह आपको परीक्षा में पूछा जायेगा ।

इसलिए हमने इस आर्टिकल में आपके लिए Teaching Methods की जानकारी सांझा की है । हमारी कोशिश रहेगी कि आपको भारी भरकम शब्दों में कांसेप्ट को समझाने के बजाय, जितना हो सके आसान शब्दों में शिक्षण विधियां समझाई जाएं । इससे आपको पूरा कांसेप्ट भी जीवन भर के लिए याद हो जायेगा और आप परीक्षा में भी अच्छे अंक स्कोर कर पाएंगे ।

Teaching Methods क्या है ?

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Teaching Methods यानि शिक्षण विधियां उन तकनीकों और रणनीतियों को संदर्भित करता है जिनका उपयोग शिक्षक कक्षा में सिखाने और निर्देश को सुविधाजनक बनाने के लिए करते हैं । उदाहरण के तौर पर चर्चा विधि/पद्धति में शिक्षक छात्रों को एक अवधारणा या कौशल का प्रदर्शन करता है और छात्र उसका अनुसरण करते हैं ।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि किसी भी परिस्थिति में कोई भी शिक्षण विधि का पालन नहीं किया जाना चाहिए । अर्थात अगर छात्र के आलोचनात्मक विचार कौशल को विकसित करना है तो प्रदर्शन विधि का कोई मतलब नहीं रह जाएगा । इस परिस्थिति में पूछताछ-आधारित या समस्या-आधारित शिक्षण विधि ही सबसे प्रभावी होगी ।

इसी तरह अन्य कई कारक हैं जिन्हें ध्यान में रखकर ही Effective Teaching Methods का अनुप्रयोग किया जाता है, इन कारकों के बारे में हम नीचे संक्षेप में समझेंगे । उम्मीद है कि यहां तक आप शिक्षण विधि का अर्थ समझ गए होंगे ।

शिक्षण विधि की परिभाषा

देश दुनिया के अलग अलग विद्वानों में शिक्षण विधि की परिभाषा अलग अलग दी है । हालांकि इन परिभाषाओं में कई बातें एक जैसी ही दिखलाई पड़ती हैं । चलिए कुछ Definitions of Teaching Method पर गौर करते हैं ।

1. गैग्ने और ब्रिग्स (1979): “एक शिक्षण विधि शिक्षण प्रक्रियाओं और मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की एक व्यवस्थित और व्यवस्थित व्यवस्था है जो छात्रों को सीखने की स्थिति प्रदान करती है ।”

2. स्मिथ और रागन (1999): “सामान्य सिद्धांत, शिक्षाशास्त्र और कक्षा निर्देश के लिए उपयोग की जाने वाली प्रबंधन रणनीतियाँ ।”

3. McKeachie और Svinicki (2014): “रणनीतियों और तकनीकों का एक सेट जो एक शिक्षक छात्रों को सीखने की प्रक्रिया में शामिल करने के लिए उपयोग करता है ।”

4. शुलमान (1987): “वह साधन जिसके द्वारा शिक्षक किसी विषय के अपने ज्ञान को एक ऐसे रूप में अनुवादित करते हैं जिसे छात्र समझ सकें ।”

शिक्षण विधियों के प्रमुख कारक

Types of Teaching Method समझने से पहले आपको यह समझना चाहिए कि आखिर ये विधियां किन कारकों से प्रभावित होती हैं । हर परिस्थिति के लिए अलग अलग शिक्षण विधि तैयार की गई है और इसलिए जरुरी है कि आप सभी शिक्षण विधि के कारकों को समझें ।

1. छात्रों की सीखने की शैली और जरूरतें: हर छात्र एक जैसा नहीं हो सकता और इसलिए उनके लिए शिक्षण विधियां भी अलग अलग होनी चाहिए । किसी भी शिक्षण विधि या रणनीति को चुनते समय सबसे पहले यह तय करना चाहिए कि छात्रों के सीखने की उपयुक्त शैली क्या है और उनकी जरूरतें क्या हैं ।

2. मौजूद संसाधन: Teaching Methods तो कई सारे हैं लेकिन क्या हो अगर उनका अनुसरण करने के लिए शिक्षक या शिक्षण संस्थान के पास पर्याप्त संसाधन ही न हो ? इसलिए कौन सी शिक्षण विधि प्रयोग में लाई जायेगी, यह मौजूद संसाधनों के हिसाब से भी तय होता है ।

3. मौजूद समय: परीक्षा के नजदीकी दिनों में और आम दिनों में शिक्षण विधि अलग अलग हो जाती है । ऐसा क्यों ? मौजूद समय की वजह से । जब परीक्षा नजदीक होती है तो मुख्य रूप से चर्चा पद्धति और पूछताछ आधारित पद्धति का इस्तेमाल किया जाता है । लेकिन आम दिनों में प्रदर्शन शिक्षण पद्धति आमतौर पर अनुसरण की जाती है ।

4. शिक्षक प्राथमिकताएं और अनुभव: शिक्षण विधियां कई बार शिक्षक की व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और अनुभवों पर भी आधारित होता है । कई शिक्षकों के लिए प्रदर्शन शिक्षण पद्धति ज्यादा सुगम लगती होगी तो वहीं कइयों के लिया व्याख्यान शिक्षण पद्धति ।

5. शिक्षण लक्ष्य: Teaching Methods कौन सा चुना जायेगा, यह निर्भर करता है कि शिक्षण लक्ष्य क्या है । उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि अगर एक शिक्षक चाहता है कि उनके छात्र पाचन तंत्र को अच्छे से समझें तो इस परिस्थिति में व्याख्यान शिक्षण पद्धति से ज्यादा असरदार होगी मल्टीमीडिया शिक्षण पद्धति ।

Important Methods of Teaching

शिक्षण विधियां कई हैं लेकिन अगर आप बीएड की तैयारी कर रहे हैं तो कुछ शिक्षण विधियां सबसे महत्वपूर्ण हैं और उनसे संबंधित प्रश्न अक्सर परीक्षा परीक्षा में पूछे जाते हैं । हम एक एक करके सभी महत्वपूर्ण शिक्षण विधियों के बारे में उदाहरण के साथ जानेंगे ।

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1. परियोजना आधारित शिक्षण विधि

Project-based method यानि परियोजना आधारित शिक्षण के अंतर्गत शिक्षक द्वारा छात्रों को परियोजना कार्य दिया जाता है । इस परियोजना कार्य को एक या एक से ज्यादा छात्र मिलकर करते हैं और उन्होंने कक्षा में अबतक क्या सीखा है, उस ज्ञान का प्रयोग करते हैं ।

आमतौर पर परियोजना-आधारित शिक्षण विधि का उपयोग विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित जैसे विषयों में किया जाता है । उदाहरण के तौर पर वर्षा जल संचयन प्रणाली मॉडल तैयार करना, कोई शोध पत्र लिखना या रोबोट तैयार करना आदि परियोजना आधारित शिक्षण विधि में शामिल हो सकता है ।

2. शिक्षण की व्याख्यान विधि

दूसरे स्थान पर है Lecture method यानि व्याख्यान शिक्षण विधि । यह सबसे पारंपरिक और आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली शिक्षण पद्धति है । इस पद्धति में, शिक्षक किसी विशेष विषय पर व्याख्यान देता है और छात्र सुनते हैं फिर नोट्स लेते हैं । आपके स्कूल और कॉलेज में भी यही विधि का इस्तेमाल लगभग रोज ही किया जाता होगा ।

आमतौर पर व्याख्यान विधि का उच्च कक्षाओं में प्रयोग होता है, जब छात्र मानसिक रूप से एक ठीक ठाक स्तर तक विकसित हो जाते हैं । इसमें शिक्षक ही ज्ञान का मुख्य स्रोत है और छात्रों से यह उम्मीद की जाती है कि वे शिक्षक की बातें सुनें और जो जरुरी बिंदु हों, उन्हें नोट करते चलें ।

3. मल्टीमीडिया शिक्षण विधि

Multimedia Teaching Method आधुनिकीकरण की देन है । इस शिक्षण पद्धति में छात्रों को टेक्नोलॉजी की मदद से किसी विषय पर ज्ञान प्रदान किया जाता है । इसमें सीखने के अनुभव को बेहतर करने के लिए वीडियो, इमेज और ऑडियो रिकॉर्डिंग जैसे विभिन्न मल्टीमीडिया टूल का उपयोग शामिल है ।

  • Case Study in Hindi
  • Project File in Hindi

इसे आसान से उदारण की मदद से समझें । अगर अगर आप एक शिक्षक हैं और आपको अपने छात्रों को छत्रपति महाराणा प्रताप के बारे में जानकारी देनी है तो आप व्याख्यान विधि का इस्तेमाल आसानी से कर सकेंगे लेकिन अगर प्रजनन प्रणाली की जानकारी देनी हो तो मल्टीमीडिया शिक्षण विधि से बेहतर कोई विधि आपको नहीं सूझेगी । यानि आप वीडियो और तस्वीरों के सहारे आसानी से छात्रों को प्रजनन प्रणाली की जानकारी सहज तरीके से दे सकते हैं ।

4. परियोजना आधारित शिक्षण विधि

परियोजना आधारित शिक्षण में आमतौर पर एक से ज्यादा छात्र शामिल होते हैं और उन्हें किसी खास विषय पर परियोजना बनाने के लिए दिया जाता है । ध्यान रहे कि उन्हें वही परियोजना कार्य दिया जाता है जिसके बारे में पहले से ही शिक्षक जानकारी दे चुके हों ।

यानि इस पद्धति में एक परियोजना या असाइनमेंट पर काम करने वाले छात्रों को शामिल किया जाता है, जिसके लिए उन्हें कक्षा में सीखे गए ज्ञान और कौशल को लागू करने की आवश्यकता होती है । परियोजना-आधारित पद्धति का उपयोग अक्सर विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित जैसे विषयों में किया जाता है ।

छात्र परियोजना-आधारित पद्धति के माध्यम से कई कौशल सीखते हैं जैसे Critical Thinking, Problem Solving, Time Management और Team Management आदि ।

5. पूछताछ आधारित शिक्षण विधि

इस शिक्षण विधि में, शिक्षक एक व्याख्याता के बजाय एक सुविधाप्रदाता के रूप में कार्य करता है । वह छात्रों को पूछताछ, जांच और प्रतिबिंबित करने की प्रक्रिया के माध्यम से मार्गदर्शन करता है । इसका फायदा यह होता है कि छात्रों के अंदर आलोचनात्मक विचार कौशल का विकास होता है और वे किसी विषय को गहराई से समझ भी पाते हैं ।

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  • Book Review in Hindi

हालांकि यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि पूछताछ आधारित शिक्षण विधि थोड़ी चुनौतीपूर्ण है । यह इसलिए क्योंकि इस विधि में काफी समय खर्च होता है, इसे प्रयोग में लाने के लिए योजना बनानी पड़ती है और साथ ही छात्रों को सीखने की जिम्मेदारी खुद पर लेनी पड़ जाती है ।

6. चर्चा शिक्षण विधि

इस पद्धति में, शिक्षक छात्रों के बीच एक समूह चर्चा की सुविधा प्रदान करता है, उन्हें किसी विशेष विषय पर अपने विचारों और दृष्टिकोणों को साझा करने के लिए प्रोत्साहित करता है । चर्चा सभी विषयों में सीखने के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह छात्रों को केवल जानकारी प्राप्त करने के बजाय इसे संसाधित करने में मदद करती है ।

Discussion Teaching Method में प्रतिभागी कई दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, दूसरों के विचारों का जवाब देते हैं, और अपने ज्ञान, समझ, या मामले की व्याख्या करने के प्रयास में अपने स्वयं के विचारों पर प्रतिबिंबित करते हैं ।

7. व्याकरण विधि

शिक्षण की व्याकरण विधि शिक्षण भाषा के लिए एक दृष्टिकोण है जो व्याकरण के नियमों के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करती है और छात्रों को सीखने और समझने में मदद करने के लिए संरचित अभ्यासों और अभ्यासों का उपयोग करती है ।

इस पद्धति में, व्याकरण को भाषा सीखने की नींव के रूप में देखा जाता है, और छात्रों से भाषा के अन्य पहलुओं पर जाने से पहले व्याकरण के नियमों में महारत हासिल करने की उम्मीद की जाती है । इस शिक्षण विधि में छात्रों को व्याकरण नियमों से अवगत कराया जाता है, उन्हें कई अभ्यास सेट दिए जाते हैं और उनके द्वारा होने वाली गलतियों को शिक्षक सुधारते हैं ।

8. खेल विधि

शिक्षण की खेल पद्धति एक ऐसा दृष्टिकोण है जो छात्रों के लिए सीखने को अधिक आकर्षक और मनोरंजक बनाने के लिए खेल का उपयोग करता है । शिक्षण की खेल पद्धति में, पारंपरिक शिक्षण विधियों को बदलने के लिए खेलों का उपयोग किया जाता है । आमतौर पर यह Teaching Method कम उम्र के बच्चों को सिखाने पढ़ाने के लिए उपयोग में लाया जाता है ।

शिक्षण की खेल पद्धति एक मूल्यवान दृष्टिकोण है जो छात्रों के लिए सीखने को अधिक आकर्षक और मनोरंजक बनाने में मदद कर सकता है । कक्षा में खेलों को शामिल करके, शिक्षक एक गतिशील और रोचक सीखने का माहौल बना सकते हैं जो रचनात्मकता, सहयोग और महत्वपूर्ण सोच कौशल को बढ़ावा देता है ।

9. प्रत्यक्ष विधि

Direct Teaching Method विदेशी भाषाओं को पढ़ाने का एक तरीका है जो कक्षा में लक्ष्य भाषा के उपयोग पर जोर देता है । इस पद्धति में, शिक्षक छात्र की मूल भाषा के उपयोग से बचता है और इसके बजाय व्याकरण, शब्दावली और भाषा के अन्य पहलुओं को पढ़ाने के लिए केवल लक्षित भाषा का उपयोग करता है ।

डायरेक्ट मेथड विसर्जन के सिद्धांतों पर आधारित है, जहां छात्र भाषा में डूबा रहता है और इसके निरंतर संपर्क के माध्यम से सीखने की उम्मीद की जाती है । इस शिक्षण विधि में लिखित अभ्यास के मुकाबले मौखिक अभ्यास पर ज्यादा जोर दिया जाता है ।

Teaching Methods – Conclusion

यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि कोई भी “सर्वश्रेष्ठ” शिक्षण पद्धति नहीं है जो हर स्थिति में प्रत्येक छात्र के लिए काम करेगी । अलग-अलग छात्रों के लिए अलग-अलग तरीके अधिक प्रभावी हो सकते हैं । अलग-अलग छात्रों के लिए उनकी सीखने की शैली, प्राथमिकताओं और जरूरतों के आधार पर अलग-अलग तरीके अधिक प्रभावी हो सकते हैं ।

सबसे Effective Teaching Methods वे हैं जो छात्रों की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं के अनुरूप हैं और जो जुड़ाव, रचनात्मकता और महत्वपूर्ण सोच को बढ़ावा देती हैं । विभिन्न तरीकों के साथ प्रयोग करके, सहकर्मियों के साथ सहयोग करके, और नए विचारों और दृष्टिकोणों के लिए खुले रहकर, शिक्षक गतिशील और प्रभावी शिक्षण वातावरण बना सकते हैं ।

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Learning and Teaching B.Ed Question Paper 2021

Learning and teaching sample and model paper 2021 for b.ed exam with important questions.

Learning and Teaching B.Ed Question Paper

Learning & Teaching Question Paper

I. Difference between education and indoctrination?

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II. What do you mean by Brain Storming?

मस्तिष्क उद्धेलन या मस्तिष्क विप्लव से आपका क्या अभिप्राय है?

III. Define learning and its nature ?

अधिगम की परिभाषा दीजिये। अधिगम की प्रकृति का वर्णन कीजिये?

IV. What is the meaning of continuous and comprehensive evaluation? निरंतर व्यापक मूल्यांकन का क्या अर्थ है, वर्णन कीजिये!

2. What do you mean by levels of teaching ? How many these levels are there? Throw light on each level of teaching and their models.

आप शिक्षण स्तरों से क्या समझते है? येस्तर कौन कौन से है? शिक्षण के प्रत्येक स्तर तथा इन स्तरों के प्रतिमानो पर प्रकाश डालें।

3. What are the various stages of teaching? Throw light on the processes involved in these stages and importance of these stages?

शिक्षण की विभिन्न अवस्थाये कौन कौन सी है? इन अवस्थाओं में सम्लित क्रियाओ तथा इन अवस्थाओं के महत्व पर प्रकाश डालिए।

4. Discuss in detail the concept attainment model of teaching.

शिक्षण सम्प्रत्यय उपलब्धि मॉडल पर विस्तार से विचार डालिए।

5. Discuss in detail about the Glaser's Basic teaching Model?

ग्लेजर के बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की विस्तारपूर्वक विवेचना कीजिये।

6. Define learning and its nature? Explain the main factors or determinants of learning.

अधिगम की परिभाषा एवं प्रकृति का वर्णन कीजिए? अधिगम को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारको की विवेचना कीजिए।

7. Describe the procedure of Flander's interaction analysis in detail?

फ्लेण्डर्स के अन्योन्य क्रिया विश्लेषण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन कीजिए।

8. Describe the types of evaluations?

मूल्यांकन के प्रकारों का वर्णन कीजिए।

परीक्षणो को किस प्रकार सेतैयार करेंगे।

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शिक्षण का अर्थ | शिक्षण अधिगम प्रक्रिया | Teaching Learning Process in Hindi

  शिक्षण का अर्थ , शिक्षण अधिगम प्रक्रिया, शिक्षण का अर्थ  teaching.

  • शिक्षण का अर्थ होता है अधिगम कराने या शिक्षित करने की प्रक्रिया।  
  • शिक्षण को अध्यापन भी कहा जाता है।  
  • शिक्षण का कार्य प्रायः शिक्षकों/अध्यापकों के द्वारा किया जाता है , जो सुनिश्चित पाठयक्रम पर आधारित होता है।  
  • शिक्षण के द्वारा बालक के ज्ञानात्मक पक्ष के विकास पर जोर दिया जाता है। चूँकि  अध्यापन प्रक्रिया में अध्यापक और छात्र में अन्तः क्रिया होती है , अतः शिक्षकों का  प्रशिक्षित होना आवश्यक है।

शिक्षा तथा स्कूलन , अधिगम , प्रशिक्षण , अध्यापन तथा अनुदेशन में संकल्पनात्मक भेद  

Constructive Differences in Education and Schooling, Learning, Training, Teaching and Instruction

सामान्यतः लोग शिक्षा की अवधारणा को स्कूलन , अधिगम , अध्यापन अथवा अनुदेशन के रूप में समझने की भूल कर बैठते हैं। यद्यपि इन शब्दों तथा शिक्षा की  प्रक्रिया के मध्य गहरा सम्बन्ध है , तथापि इन सभी के अर्थों में भिन्नता है।

शिक्षा Education

  • व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवनभर चलती रहती है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत ज्ञान , अनुभव , कौशल तथा अभिवृत्तियाँ सभी कुछ आते हैं। इस प्रकार जीवन के सभी अनुभव सम्भवतः शैक्षिक बन जाते हैं तथा शिक्षा की प्रक्रिया वैयक्तिक तथा सामाजिक दोनों प्रकार की अवस्थाओं में चलती रहती है। शिक्षा के इस अर्थ में उन सभी मूल्यों , अभिवृत्तियों तथा कौशलों , जिन्हें समाज बच्चों में डालना चाहता है , को विकसित करने सम्बन्धी सभी प्रयत्न सम्मिलित हैं।

स्कूलन Schooling

  • स्कूलन वह क्रिया है जिसमें चेतन रूप में मूल्य , ज्ञान तथा कौशलों को बच्चों में एक औपचारिक स्थिति की रूपरेखा के अन्तर्गत प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता है। विद्यालयों द्वारा कुछ ऐसे विशेष विषय क्षेत्रों में सुविचारित व क्रमबद्ध प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है , जो अन्य लोगों की जीवन प्रक्रिया या अनुभवों द्वारा प्राप्त न किया जा सके। इस तरह स्कूलन एक ऐसा शैक्षिक कार्य है जिसमें दिए जाने वाले अनुभवों की एक निश्चित सीमा है तथा जो मानव जीवन की एक विशिष्ट अवधि तक सीमित है। स्कूलन हमारी शिक्षा का एक अंग मात्र है।  

अधिगम Learning

  • अधिगम एक ऐसी प्रकिया है जिसके द्वारा अभ्यास अथवा अनुभव व्यवहार में परिवर्तन सम्भव होता है। शारीरिक परिवर्तन को अधिगम के अन्तर्गत शामिल नहीं किया जाता। शिक्षा के द्वारा अधिगम प्रक्रियाओं को सुसंगत व्यक्तित्व विकास जैसे अपने व्यापक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

प्रशिक्षण Training

  • प्रशिक्षण ऐसी क्रियाओं की एक क्रमबद्ध शृंखला है जिसमें अनुदेशन ,  अभ्यास आदि सम्मिलित होते हैं तथा जिनका उद्देश्य जीवन अथवा व्यवसाय के किसी विशेष पक्ष से सम्बन्धित वांछनीय आदतों को उत्पन्न करना या व्यवहार प्रकटीकरण होता है। उदाहरण के लिए शिक्षण में पारंगत होने के लिए व्यक्ति अध्यापक प्रशिक्षण का सहारा लेता है , जबकि तकनीकी कौशलों के विकास के लिए वह तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त करता है। प्रशिक्षण के द्वारा विशिष्ट कौशलों का विकास तथा संवर्धन होता है ताकि प्रशिक्षण पाने वाले को सम्बन्धित क्षेत्र अथवा कार्य में विशेषज्ञ बनाया जा सके। 

  शिक्षण तथा अनुदेशन Teaching and Instruction 

  • ऐसे साधन रूप हैं जिनका उपयोग मानव व्यवहार में अभीष्ट परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। शिक्षण तथा अनुदेशन में अध्येता को विचारों , मूल्यों , कौशलों , सूचनाओं तथा ज्ञान का सम्प्रेषण कराना सम्मिलित होता है। अध्ययन तथा अनुदेशन का उद्देश्य विद्यार्थियों अथवा अध्येताओं को शिक्षित करने की दृष्टि से उनके अधिगम को प्रभावी बनाना होता है। इस प्रकार अध्यापन तथा अनुदेशन व्यक्तियों को शिक्षित करने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला एक साधन मात्र है।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया Teaching Learning Process

शिक्षण का अर्थ  | शिक्षण अधिगम प्रक्रिया | Teaching Learning Process in Hindi

  • अध्यापन का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी के व्यवहार को उचित दिशा में प्रभावित करन अर्थात् उसके अधिगम को उचित दिशा में प्रभावी बनाना होता है।  
  • अधिगम को प्रभावी बनाने तथा व्यवहार को परिवर्तन करने की उचित दिशा क्या हो , इसका निर्णय विद्यालय और अध्यापक मिलकर शैक्षिक उद्देश्य निर्धारित करते समय करते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक को शिक्षा के लक्ष्य और उसके उद्देश्यों के बारे में पता हो। साथ ही अध्यापक को इस योग्य होना चाहिए कि वह विद्यार्थी के सीखने के लिए प्रभावशाली साधनों का निर्माण कर सके। और अन्त में वह यह निर्धारित कर सके कि इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किस सीमा तक जाना है ?    
  • " शैक्षिक प्रक्रिया के तीन मुख्य बिन्दु हैं उद्देश्य , अधिगम अनुभव क्रियाएँ एवं विद्यार्थी का मूल्य निर्धारण ।

शैक्षिक प्रक्रिया को सामान्य रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है

  • उद्देश्य  
  • अधिगम अनुभव  
  • विद्यार्थी की जाँच
  • उपरोक्त चित्रण गतिमय है। इसमें तीनों मुख्य अंगों की पारस्परिक अन्तःक्रिया दिशा-तीरों के द्वारा बताई गई है। उद्देश्य यह निर्धारित करते हैं कि विद्यार्थी को कौन-से वांछित व्यवहार को प्राप्त करने की दिशा में चलना चाहिए ? अधिगम अनुभव वे क्रियाएँ और अनुभव हैं जो वांछित व्यवहार प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी को करने चाहिए।
  • अध्यापन अनुभव प्रदान करने में अध्यापक का योगदान महत्पूर्ण होता है। अध्यापन अनुभवों में विद्यार्थी और विषय सामग्री के बीच अन्तः सम्बन्ध स्थापित करना निहित है।
  • अध्यापक विद्यार्थियों को अधिगम अनुभव प्रदान करने के लिए विभिन्न तरीके  अपनाता है। इन अनुभवों से विद्यार्थियों में व्यवहारगत परिवर्तन होते हैं। अतः  अधिगम में विद्यार्थियों के व्यवहार में आया परिवर्तन शामिल है। विद्यार्थियों में  उल्लेखनीय अधिगम होने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षण प्रभावी हो ।
  • विद्यार्थियों में विषय सामग्री के अधिक आदान-प्रदान के लिए अध्यापक को उचित विधियों और माध्यम को अपनाना चाहिए। इस प्रकार प्रभावशाली अध्यापन वही है जो उचित और सफल अधिगम अनुभवों की ओर ले जाए।
  • अध्यापन के अतिरिक्त शैक्षिक अनुभव प्राप्त करने के लिए और भी साधन अपनाए जा सकते हैं , जैसे लाइब्रेरी , प्रयोगशाला , रेडियो , फिल्में , विज्ञान क्लब और भ्रमण जैसे या अन्य वास्तविक जीवन से सम्बन्धित सीखने की परिस्थितियाँ। 

विद्यार्थी जाँच का प्रयोजन यह जानना है कि उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त कर लिया गया है ?

  • शैक्षिक प्रक्रिया यह बताती है कि प्रत्येक शिक्षण बिन्दु दूसरे के साथ कैसे जुड़ा है ?  
  • शैक्षिक प्रक्रिया के तीनों बिन्दुओं का आपसी सम्बन्ध अच्छी तरह जान लेना चाहिए। उद्देश्यों से आरम्भ करें , तो जो तीर अधिगम बिन्दुओं की ओर इशारा करते हैं वे बताते हैं कि शैक्षिक अनुभवों को चुनने अथवा बनाने में वे किस प्रकार सहायक होते हैं ?  
  • चित्र में जो तीर उद्देश्यों से विद्यार्थी की जाँच की ओर इशारा करता है वह बताता है कि मुख्य संकेत इस बात का सबूत हैं कि कार्यक्रम के उद्देश्य किस सीमा तक प्राप्त कर लिए गए हैं ? जिस प्रकार शैक्षिक उद्देश्य अधिगम के अनुभवों की सीमा रेखा निर्धारित करते हैं उसी प्रकार , वे विद्यार्थी की जाँच की सीमा भी निर्धारित करते हैं। 
  • त्रिभुज में जो तीर विद्यार्थी जाँच से उद्देश्यों की ओर और फिर अधिगम अनुभवों  की ओर संकेत करते हैं वे विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। पहली दशा के तीर यह बताते  हैं कि जाँच के तरीकों से उद्देश्य किस सीमा तक पूरा किया गया है ? साथ ही जाँच  यह संकेत देती है कि कुछ उद्देश्यों को ठीक प्रकार से निर्धारित करने की  आवश्यकता है और कुछ को बिल्कुल निकाल देने की ।

विद्यार्थी की जाँच से निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर का पता लगाने में सहायता मिलती है

  • उद्देश्यों में संशोधन करना चाहिए या उन्हें हटा देना चाहिए। 
  • क्या ये उद्देश्य किसी वर्ग विशेष के लिए उपयुक्त हैं ?  
  • क्या उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक सन्दर्भ प्राप्त हैं ? 
  • चित्र में जो तीर शिक्षार्थी की जाँच से अधिगम अनुभवों की ओर इशारा करता है , उससे पता लगता है कि अधिगम अनुभव किस सीमा तक सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं ? अतः इससे हमें शैक्षिक अनुभवों को सुधारने या बिल्कुल हटाने में सहायता मिल सकती है। जो तीर जाँच से अधिगम अनुभव की ओर संकेत करता है वह बताता है कि मूल्यांकन विशेषज्ञ द्वारा छाँटी गई क्रियाएँ और समस्याएँ कौन-कौन से अधिगम अनुभवों की ओर संकेत करती हैं ?
  • त्रिकोण का अन्तिम तीर जो अधिगम अनुभवों से उद्देश्यों की ओर इशारा है , यह बताता है कि अधिगम अनुभवों के प्रभाव से शिक्षक , विद्यार्थी और शिक्षण सामग्री कैसे प्रभावित होते हैं और कैसे नये उद्देश्यों के लिए सुझाव मिलते हैं ?

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शिक्षण अधिगम के सिद्धान्त , सुक्ष्म शिक्षण,सूक्ष्म शिक्षण के सिद्धान्त, शिक्षण विधियों के प्रकार 

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शिक्षण के सिद्धान्त | Principles of Teaching in hindi

शिक्षण सिद्धांत (teaching principle).

बचपन में अधिकतर लोगों से एक सवाल पूछा जाता है कि आप बड़े होकर क्या बनेंगे? कुछ का जवाब होगा, बड़े होकर मैं टीचर बनूंगा/बनूंगी. कभी आपने जानने का प्रयास किया कि शिक्षक कैसे बनते हैं? या शिक्षण का मतलब क्या है? वास्तव में शिक्षक वह है जिसे पढ़ाना आता हो, पढ़ाने का कार्य शिक्षण कहलाता है और शिक्षण करने की प्रक्रिया में हम कुछ आधारों का अनुगमन करते हैं. इन्हीं आधारों और मान्यताओं को शिक्षण के सिद्धांत कहा जाता है. शिक्षण का एक निश्चित उद्देश्य होता है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षण विधि एक प्रमुख मार्ग का काम करती है. शिक्षण के सिद्धांत निम्लिखित हैं-

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(1). प्रेरणा का सिद्धांत (Principle of Motivation)

मानव स्वभाव है- प्रशंसा से खुश और आलोचना से मायूस होना. प्रशंसा पाकर हम और अच्छा प्रदर्शन या मेहनत करने की ठान लेते हैं और उसमें सफल भी होते हैं. यह प्रशंसा और शाबाशी ही मनोविज्ञान की भाषा में प्रेरणा कहलाती है. प्रेरणा ही प्राणी को क्रियाशील बनाती है. व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया जो किसी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है, प्रेणात्मक होती है.

वास्तव में प्रेरणा वह प्रक्रिया है जो समस्त प्रकार के शिक्षण को प्रारंभ करती है और जारी रखते हुए पूरा होने तक चलती रहती है. शिक्षक को चाहिए कि वह प्रेरक तत्वों द्वारा अधिगम को रुचिकर बनाए ताकि प्रभावी संप्रेषण संभव हो सके. एक बार प्रेरित होने के बाद सीखने की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है और इसी में शिक्षण की सफलता निहित है. वर्तमान शिक्षण विधि में प्रेरणा को बहुत ही महत्व दिया गया है. बिना प्रेरणा के बालक किसी भी कार्य में रुचि नहीं ले सकता. सफल शिक्षण वही है जिसमें बालकों को अध्यापक द्वारा स्वयं कार्य करने के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा मिलती है.

(2). क्रिया का सिद्धांत (Principle of Activity)

इसका अर्थ है करके सीखना . यह सिद्धांत बाल मनोविज्ञान का आधारभूत सिद्धांत है. इसमें सीखने वाले का पूरी अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रहना परम आवश्यक है. आधुनिक शिक्षण विधि में करके सीखने के सिद्धांत का पूर्णरूपेण पालन हो रहा है. बालक का विकास भाषण सुनने और पुस्तकों को रटने से नहीं हो सकता. यह उसी शिक्षण विधि के द्वारा हो सकता है जो बालक को अधिक से अधिक शारीरिक और मानसिक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है. इसी को सफल शिक्षण विधि कहते हैं. इसमें बालकों को तर्क और चिंतन करने एवं समस्याओं से लड़ने का अधिक से अधिक अवसर दिया जाता है.

जैसे साइकिल सीखने की प्रक्रिया में साइकिल को पकड़ना, पेडल मारना, कई बार साइकिल चलाते समय गिर जाना आदि  को हम स्वयं जब तक साइकिल के साथ क्रिया नहीं करते तब तक हम साइकिल चलाना नहीं सीख सकते.

स्पष्ट है शिक्षण का कार्य भी बिना क्रियाशील हुए संभव नहीं है. जितनी अधिक क्रियाशीलता उतनी अधिक सीखने की प्रक्रिया सरल और उद्देश्य पूर्ण होगी. मोंटेसरी , किंडरगार्टन और डाल्टन ऐसी ही कुछ पद्धतियां है जो क्रियाशीलता पर जोर देती हैं. महात्मा गांधी द्वारा चलाई गई बेसिक योजना तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में करके सीखने को मूलभूत सिद्धांत के रूप में मान्यता दी गई है.

(3). रुचि का सिद्धांत (Principle of Interest)

जिस विषय या क्रिया में हमारी रुचि होती है, उसको हम आसानी से सीख लेते हैं. कारण कि हम उसको बड़ी तत्परता के साथ करते हैं. इसलिए कुछ कुशल शिक्षक शिक्षण विधियों को निर्धारित करते समय बालकों की रूचि पर विशेष ध्यान देते हैं. इसके लिए वह शिक्षण के विशेष सामग्रियों का चयन करते समय बालक की इच्छाओं, आवश्यकताओं और उसके चारों ओर व्याप्त परिस्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं. रुचि के सिद्धांत के अनुसार शिक्षण कार्य ऐसा हो कि सीखने वाला उसे तन्मय होकर सीखे. शिक्षक, शिक्षण सामग्री को इस तरीके से प्रस्तुत करें कि कक्षा का अनुशासन बना रहे और अधिगमकर्ता सीखने के प्रति सक्रिय रहे.

(4). निश्चित उद्देश्य का सिद्धांत (Principle of Definite Aim)

कोई भी प्राणी अनायास (useless)काम नहीं करता. उसके प्रत्येक काम का कोई ना कोई निश्चित उद्देश्य होता है. उस उद्देश्य के प्रति उसके हृदय में जितनी आस्था और निष्ठा होती है, उसको प्राप्त करने के लिए उतना ही वह अधिक प्रयास करता है. व्यक्ति कोई भी कार्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करता है. इसलिए कार्य करने वाले को कार्य के उद्देश्य से पर्याप्त प्रेरणा मिलती है. उद्देश्य निश्चित होने से दूसरा प्रत्यक्ष लाभ होता है कि बालक जो कार्य करते हैं उसको क्रमबद्ध किया जा सकता है. कोई भी कार्य किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है और वह कार्य उस उद्देश्य की प्राप्ति तक चलता है. वैसे ही कक्षा में भी बालकों को पहले प्रकरण का उद्देश्य बता दिया जाता है और उनको उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करने के लिए उत्तेजित किया जाता है. जिस कार्य का उद्देश्य जितना ही स्पष्ट होता है वह उतना ही प्रेरणादायक होता है, इसी के साथ व्यक्ति उसको उतने ही लगन और निष्ठा के साथ करता है.

(5). नियोजन का सिद्धांत (Principle of Planning)

शिक्षण हो या कोई भी कार्य, उसका पूरा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह कार्य योजना बनाकर किया गया है या नहीं. शिक्षण करते समय प्रत्येक शिक्षक को अपने शिक्षण योजना बनानी चाहिए, उसके प्रस्तुतीकरण का क्रम ज्ञात हो ताकि सीखने वाला भ्रमित ना हो कि गुरु जी ने आज क्या पढ़ाया था? वर्तमान शिक्षण कार्य में प्रत्येक प्रशिक्षु को पाठ योजना बनाने एवं उसके अभ्यास पर जोर दिया जाता है. एक कुशल शिक्षक शिक्षण विधियों को निर्धारित करते समय बालकों की रूचि पर विशेष ध्यान देते हैं. इसके लिए वह शिक्षण के विषय सामग्री का चयन करते समय बालक की इच्छा आवश्यकताओं का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं.

(6.) चयन का सिद्धांत (Principle of Selection)

हम बीमार हैं तो अगर हमें डॉक्टर के पास जाना हो और विद्यालय भी जाना हो तो इस समय जो ज्यादा जरूरी होगा उसी का चयन करेंगे ताकि दूरगामी प्रभाव हमारे पक्ष में हो इसी स्थिति को चयन करना कहते हैं. शिक्षण भी एक जटिल कार्य है, जिसमें हमें विभिन्न विषयों को पढ़ना-समझना होता है. चयन के सिद्धांत के अनुसार शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले उपयोगी तत्वों का चयन कर लेना चाहिए और अनुपयोगी तत्वों को छोड़ देना चाहिए. एक प्रकरण में केवल उन्हीं तत्वों या विषय सामग्रियों को लेना चाहिए, जिससे उद्देश्य की प्राप्ति समय के अंदर और सफलतापूर्वक हो सके. विषयों का चयन करते समय अध्यापक को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-

  • विषय सामग्री की मात्रा इतनी हो कि इससे उद्देश्य की प्राप्ति हो सके.
  • विषय सामग्री छात्रों की रुचि और योग्यता के अनुसार हो.
  • समय के अंदर समाप्त हो जाने वाला हो.
  • विषय सामग्री जीवनपयोगी हो.

(7). विभाजन का सिद्धांत (Principle of Division)

इसे लघु सोपानों का सिद्धांत भी कहते हैं. शिक्षण स्वयं में व्यापक प्रक्रिया है. इसको सफल बनाने का सबसे सरल तरीका है इसे विभाजित करके पढ़ाया जाए. शिक्षक को चाहिए पाठ्यवस्तु को विभाजित करके सरल से कठिन की ओर अग्रसर हों ताकि तारतम्यता (क्रमबद्धता) बनी रहे और संप्रेषण व्यवहारिक बना रहे. किसी पाठ का ' पाठसूत्र ' बनाते समय हम लोग प्रस्तावना, उद्देश्य, कथन, प्रस्तुतीकरण, सामान्यीकरण, प्रयोग आदि अनेक सोपान बनाते हैं. जैसे व्याकरण का ज्ञान देने के लिए हम पहले अक्षर ज्ञान देंगे, शब्द बनाना सिखाएंगे, फिर वाक्य कैसे बनाए जाते हैं, यह बताएंगे तब व्याकरण की दृष्टि से इनका प्रयोग बताएंगे.

(8). आवृत्ति का सिद्धांत (Principle of Revision)

यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि किसी क्रिया या विषय-वस्तु को सीखने पर आत्मसात करने के बाद उसको कई बार दोहरा लेना चाहिए. इससे विषय का ज्ञान टिकाऊ एवं उपयोगी हो जाता है. थोर्नडाईक ने इसी को अभ्यास के नियम की संज्ञा दी है. आप सभी ने यह जुमला अक्सर सुना होगा- " करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान! रस्सी आवत जात है सिल पर परत निशान " इसका आशय है कि जिस कार्य को हम बार-बार करते हैं, वह कार्य आसान हो जाता है. शिक्षण में जिस पाठ या तत्व को हम बार-बार पढ़ते-पढ़ाते हैं, उस पर हमारी पकड़ अच्छी होती है और उसमें रुचि व ध्यान भी केंद्रित होता है.

(9). रचना का सिद्धांत (Principle of Creation)

सफल शिक्षण वही है जो बालकों की रचनात्मक शक्ति का विकास करता है. इसके लिए अध्यापक को चाहिए कि वह शिक्षा में बालकों को इस प्रकार की क्रियाओं को करने के लिए प्रोत्साहित करें जो रचनात्मक हों. इस रचनात्मक क्रियाओं में बालकों का मस्तिष्क, हाथ और ह्रदय तीनों का योग होता है. इससे वह विषय में पर्याप्त रुचि लेता है, क्योंकि विषय का भार किसी एक अंग पर नहीं पड़ता. शिशु के लिए प्रयुक्त होने वाले ' किंडरगार्टन ' और ' मोंटेसरी ' विधि में बच्चों को रचना करने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है. वर्तमान में सभी आधुनिक शिक्षण विधियां इस सिद्धांत का सम्मान करती हैं.

(10). वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत (Principle of Individual Defferences)

प्रत्येक बालक अपनी रुचि, शारीरिक, मानसिक दशाओं और योग्यताओं में एक दूसरे से भिन्न होता है. इसी को व्यक्तिक विभिन्नता कहते हैं. एक कक्षा में कुछ मंदबुद्धि के बालक होते हैं, जो विषय को बहुत देर में समझते हैं और कुछ ऐसे भी छात्र होते हैं, जो थोड़े से संकेत पर ही विषय को समझ लेते हैं. अध्यापकों को चाहिए कि वह इन दोनों प्रकार के छात्रों पर हमेशा ध्यान रखें अन्यथा शिक्षण कुछ छात्रों की समझ में आएगा और कुछ की नहीं.

(11). पूर्व ज्ञान का सिद्धांत (Principle of Previous Knowledge)

इस सिद्धांत के अनुसार बालकों को किसी नवीन विषय का ज्ञान उनके पूर्व ज्ञान के आधार पर ही देना चाहिए. बालक जितना जानता है उसी से संबंधित जो नवीन ज्ञान दिया जाता है वह टिकाऊ होता है. जैसे कक्षा में बच्चों को हिरण के बारे में बताना है, परंतु बच्चों ने कभी हिरन को नहीं देखा है. बकरी के शरीर की बनावट बहुत कुछ हिरन से मिलती जुलती है और बच्चों ने बकरी को देखा भी है तो ऐसी अवस्था में अध्यापक हिरण का परिचय बकरी के आधार पर देता है, तो बच्चे हिरण के विषय में अच्छी तरह से जान पाएंगे.

(12). जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धांत (Principle of Linking with Life)

शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है. शिक्षा के द्वारा ही मानव जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है. इसलिए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में शिक्षा को जीवन से जोड़ने की बात पर जोर दिया गया है. शिक्षा देने का कार्य शिक्षण के माध्यम से होता है, शिक्षक को किसी भी पाठ को पढ़ाते समय उन तथ्यों, पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो विद्यार्थी को उसके जीवन की क्रिया से जोड़ते हैं. यह संबंध स्थापित हो जाने पर नया ज्ञान या कौशल बालक के जीवन का स्थाई अंग बन जाता है और वह इस ज्ञान का प्रयोग जीवन में आने वाली परिस्थितियों को सुलझाने में करता है. सभी नवीन शिक्षण विधियों में इस सिद्धांत का पूर्णरूपेण पालन किया जाता है.

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Assessment Of Learning For Learning And As Learning In Hindi

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Assessment Of Learning For Learning And As Learning In Hindi (सीखने के लिए सीखने का आकलन और सीखने के रूप में)

KVS सिलेबस के अंदर एक टॉपिक है जिसका नाम है | Understanding Teaching Learning | Assessment Of Learning For Learning And As Learning In Hindi or Assessment of Learning, for Learning and as Learning: Meaning, Purpose, and Consideration in Planning In Hindi PDF Notes Download, यह उसी का एक point है | हम आज के इन नोट्स में इसे कवर करेंगे और हमारा अगला टॉपिक Enhancing Teaching Learning Process होगा | हम आपको संपूर्ण नोट्स देंगे जिन्हें पढ़कर आप अपना कोई भी Teaching Exam पास कर सकते हैं तो चलिए शुरू करते हैं बिना किसी देरी के |

  • Understanding the Learner के संपूर्ण नोट्स हम कवर कर चुके हैं | वेबसाइट के होमपेज पर जाकर चेक कर लीजिये |

Assessment of Learning, for Learning and as Learning: Meaning, Purpose, and Consideration in Planning

(सीखने का आकलन, सीखने के लिए और सीखने के रूप में: प्रत्येक योजना में अर्थ, उद्देश्य और विचार).

  • Assessment of Learning (सीखने का आकलन)
  • Assessment for Learning (सीखने के लिए मूल्यांकन)
  • Assessment as Learning (सीखने के रूप में आकलन)

सीखने का आकलन

(assessment of learning).

  • यह योगात्मक और प्रदर्शन आधारित है।
  • मूल्यांकन न्यायाधीश स्थापित मानकों और बेंचमार्क के खिलाफ परिणाम देते हैं।
  • मूल्यांकन के अधिकांश पारंपरिक उपयोग से यह पता चल सकता है कि समय के साथ शिक्षार्थी और प्रणाली कैसा प्रदर्शन करते हैं।
  • सीखने के लक्ष्यों और मानकों के खिलाफ छात्र उपलब्धि का आकलन करने के लिए छात्र सीखने के सबूत का उपयोग करने के लिए शिक्षकों की सहायता करें

सीखने का आकलन, जिसे योगात्मक मूल्यांकन (Summative Assessment) के रूप में भी जाना जाता है, एक इकाई या पाठ्यक्रम के अंत में छात्र सीखने का मूल्यांकन करने की प्रक्रिया है, और इसका उपयोग छात्र के अंतिम ग्रेड या उपलब्धि स्तर को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।

  • मानकीकृत परीक्षण (Standardized testing): मूल्यांकन के इस रूप में एक छात्र के ज्ञान या किसी विशेष विषय की समझ को मापने के लिए SAT (SAT Full Form – Scholastic Assessment Test) या ACT  (ACT Full Form – American College Testing) जैसे मानकीकृत परीक्षण का संचालन करना शामिल है। उदाहरण के लिए , बीजगणित की एक छात्र की समझ का आकलन करने के लिए एक गणित मानकीकृत परीक्षा का संचालन करना जिसमें बहुविकल्पी, लघु उत्तर और निबंध प्रश्न शामिल हैं। 
  • इकाई के अंत या वर्ष के अंत में परीक्षा (End-of-unit or end-of-year exams): मूल्यांकन के इस रूप में एक इकाई या वर्ष के अंत में एक छात्र की सामग्री की समग्र समझ को मापने के लिए एक परीक्षा या परीक्षा का संचालन करना शामिल है। उदाहरण के लिए , एक इतिहास इकाई के अंत में एक परीक्षा देना जिसमें कक्षा के कई हफ्तों की सामग्री शामिल है।
  • अंतिम परियोजनाएँ (Final projects): मूल्यांकन के इस रूप में छात्रों को एक अंतिम परियोजना को पूरा करने की आवश्यकता होती है जो किसी अवधारणा या कौशल की उनकी समझ को प्रदर्शित करता है। उदाहरण के लिए , एक साइंस फेयर प्रोजेक्ट जिसमें छात्रों को एक परिकल्पना का परीक्षण करने के लिए एक प्रयोग डिजाइन करने और संचालित करने की आवश्यकता होती है।
  • पोर्टफोलियो मूल्यांकन (Portfolio assessment): मूल्यांकन के इस रूप में छात्रों की प्रगति और सामग्री की समझ का आकलन करने के लिए एक सेमेस्टर या एक वर्ष की अवधि में एक छात्र के काम का संग्रह और मूल्यांकन करना शामिल है। उदाहरण के लिए , एक लेखन पोर्टफोलियो जिसमें साल भर लिखे गए कई निबंध शामिल हैं।
  • बाहरी मूल्यांकन (External evaluation): मूल्यांकन के इस रूप में एक बाहरी मूल्यांकनकर्ता को छात्र के काम या प्रदर्शन का आकलन करना शामिल है। उदाहरण के लिए , एक कॉलेज प्रवेश अधिकारी एक छात्र के आवेदन की समीक्षा करता है, जिसमें प्रतिलेख, परीक्षण स्कोर और निबंध शामिल हैं।

सीखने के लिए आकलन

(assessment for learning).

  • फॉर्मेटिव, रीयल-टाइम, डायग्नोस्टिक
  • मूल्यांकन शिक्षार्थियों और वयस्कों दोनों को ज्ञान, कौशल और स्वभाव विकसित करने पर तत्काल प्रतिक्रिया प्रदान करता है जबकि सीखना वास्तव में हो रहा होता है।
  • शिक्षकों को अपने शिक्षण को सूचित करने के लिए छात्रों के ज्ञान, समझ और कौशल के बारे में जानकारी का उपयोग करने में सक्षम बनाता है
  • शिक्षक छात्रों को उनके सीखने और सुधार करने के तरीके के बारे में प्रतिक्रिया प्रदान करते हैं |

सीखने के लिए मूल्यांकन, जिसे रचनात्मक मूल्यांकन (Formative Assessment) के रूप में भी जाना जाता है, निर्देश में सुधार करने और छात्र की प्रगति का समर्थन करने के लिए छात्र सीखने के साक्ष्य को इकट्ठा करने और व्याख्या करने की एक प्रक्रिया है।

  • कक्षा क्विज़ और क्विज़ (Classroom quizzes and quizzes): ये रचनात्मक आकलन छात्र की समझ पर त्वरित प्रतिक्रिया प्रदान करते हैं और वास्तविक समय में निर्देश को समायोजित करने के लिए उपयोग किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा की शुरुआत में गणित की अवधारणा पर त्वरित प्रश्नोत्तरी देना और पाठ योजना को समायोजित करने के लिए परिणामों का उपयोग करना।
  • एग्जिट स्लिप (Exit slips): ये फॉर्मेटिव असेसमेंट छात्रों को इस बात पर विचार करने के लिए कहते हैं कि उन्होंने क्या सीखा है और अगली कक्षा के लिए योजना बनाने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, छात्रों से कक्षा छोड़ते समय एक इंडेक्स कार्ड पर सीखी गई एक चीज़ को लिखने के लिए कहना।
  • अवलोकन (Observations): इन रचनात्मक आकलनों में कक्षा के दौरान छात्र के व्यवहार और प्रदर्शन को देखना शामिल है और इसका उपयोग उन क्षेत्रों की पहचान करने के लिए किया जा सकता है जहां छात्रों को अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए , एक समूह कार्य गतिविधि के दौरान एक छात्र का अवलोकन करना और उनके सहयोग कौशल पर प्रतिक्रिया प्रदान करना।
  • स्व-मूल्यांकन (Self-assessments): इन रचनात्मक आकलन में छात्रों को अपने स्वयं के सीखने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने पर विचार करना शामिल है। उदाहरण के लिए , छात्रों को रूब्रिक प्रदान करना और उन्हें अपने काम का आकलन करने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने के लिए कहना।
  • सम्मेलन (Conferences): इन रचनात्मक आकलनों में छात्र की प्रगति पर चर्चा करने और प्रतिक्रिया प्रदान करने के लिए शिक्षक और छात्र के बीच आमने-सामने बैठकें शामिल हैं। उदाहरण के लिए , छात्रों के साथ उनकी लेखन प्रगति पर चर्चा करने के लिए व्यक्तिगत बैठकें करना और सुधार के क्षेत्रों पर प्रतिक्रिया प्रदान करना।

अधिगम के रूप में मूल्यांकन

(assessment as learning).

  • शिक्षार्थी द्वारा स्व-परीक्षा।
  • मूल्यांकन मेटाकॉग्निशन के विकास का समर्थन करता है
  • शिक्षार्थी कैसे सीखते हैं और शिक्षार्थी स्वयं को कौन जानते हैं, इसकी समझ
  • यह एक बेहतर शिक्षार्थी बनने और उच्च स्तर के कौशल और स्वभाव विकसित करने के लिए आवश्यक जागरूकता प्रदान करता है।

सीखने के रूप में मूल्यांकन, जिसे स्व-मूल्यांकन (Self-Assessment) के रूप में भी जाना जाता है, छात्रों को उनके स्वयं के मूल्यांकन में शामिल करने की एक प्रक्रिया है, जहाँ वे अपने स्वयं के सीखने का मूल्यांकन करने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

  • आत्म-प्रतिबिंब (Self-reflection): मूल्यांकन के इस रूप में छात्रों को अपने स्वयं के सीखने और प्रगति पर प्रतिबिंबित करना और सुधार के लिए क्षेत्रों की पहचान करना शामिल है। उदाहरण के लिए , एक सीखने की पत्रिका रखने वाले छात्र जहां वे एक अवधारणा की अपनी समझ को प्रतिबिंबित करते हैं और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करते हैं।
  • लक्ष्य निर्धारण (Goal setting): मूल्यांकन के इस रूप में छात्रों को अपने स्वयं के सीखने के लक्ष्यों को निर्धारित करना और उन्हें प्राप्त करने की दिशा में उनकी प्रगति को ट्रैक करना शामिल है। उदाहरण के लिए , छात्र अपने पढ़ने की समझ कौशल में सुधार करने और समय के साथ अपनी प्रगति को ट्रैक करने के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं।
  • स्व-मूल्यांकन (Self-evaluation): मूल्यांकन के इस रूप में शिक्षक द्वारा प्रदान किए गए मानदंड या रूब्रिक का उपयोग करके छात्रों को अपने स्वयं के काम और प्रदर्शन का मूल्यांकन करना शामिल है। उदाहरण के लिए, छात्र रूब्रिक के आधार पर अपने स्वयं के लेखन का मूल्यांकन करते हैं जिसमें संगठन, व्याकरण और शब्दावली जैसे तत्व शामिल होते हैं।
  • स्व-मूल्यांकन क्विज़ (Self-assessment quizzes): मूल्यांकन के इस रूप में छात्रों को क्विज़ या स्व-मूल्यांकन परीक्षण करके अवधारणा की अपनी समझ का परीक्षण करना शामिल है। उदाहरण के लिए , गणित की अवधारणा की अपनी समझ का परीक्षण करने के लिए ऑनलाइन क्विज़ लेने वाले छात्र और सुधार के लिए क्षेत्रों की पहचान करने के लिए परिणामों का उपयोग करना।
  • मेटाकॉग्निशन (Metacognition): मूल्यांकन के इस रूप में छात्रों को अपनी स्वयं की सोच प्रक्रियाओं के बारे में जागरूक होना और अपने स्वयं के सीखने की निगरानी और सुधार करने के लिए रणनीतियों का उपयोग करना शामिल है। उदाहरण के लिए, छात्र उन रणनीतियों की पहचान करते हैं जिनका उपयोग वे नई जानकारी को समझने और याद रखने के लिए करते हैं, और फिर सबसे प्रभावी रणनीतियों को खोजने के लिए विभिन्न रणनीतियों के साथ प्रयोग करते हैं।

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Meaning, Purpose, and Consideration in Planning

(योजना में अर्थ, उद्देश्य और विचार).

सीखने का आकलन, सीखने के लिए आकलन और सीखने के रूप में आकलन मूल्यांकन के विभिन्न रूप हैं जिनके अलग-अलग अर्थ, उद्देश्य और नियोजन में विचार हैं।

  • सीखने का आकलन, जिसे योगात्मक मूल्यांकन के रूप में भी जाना जाता है, एक इकाई या पाठ्यक्रम के अंत में छात्र के अंतिम ग्रेड या उपलब्धि स्तर को निर्धारित करने के लिए छात्र सीखने का मूल्यांकन करने की एक प्रक्रिया है। इस प्रकार के मूल्यांकन का उद्देश्य स्थापित मानकों या सीखने के उद्देश्यों के संबंध में छात्र के ज्ञान, समझ और कौशल को मापना है। इस प्रकार के मूल्यांकन की योजना बनाते समय, मूल्यांकन को पाठ्यक्रम के साथ संरेखित करने, उपयुक्त मूल्यांकन उपकरणों के उपयोग और छात्र प्रेरणा पर संभावित प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए।
  • सीखने के लिए मूल्यांकन, जिसे निर्माणात्मक मूल्यांकन के रूप में भी जाना जाता है, निर्देश में सुधार करने और छात्र की प्रगति का समर्थन करने के लिए छात्र सीखने के साक्ष्य को इकट्ठा करने और व्याख्या करने की एक प्रक्रिया है। इस प्रकार के मूल्यांकन का उद्देश्य शिक्षकों को छात्रों की समझ के बारे में जानकारी प्रदान करना है, ताकि वे वास्तविक समय में निर्देश को समायोजित कर सकें और छात्रों को उनकी प्रगति के बारे में प्रतिक्रिया प्रदान कर सकें। इस प्रकार के मूल्यांकन की योजना बनाते समय, मूल्यांकन को पाठ्यक्रम के साथ संरेखित करने, उपयुक्त मूल्यांकन उपकरणों के उपयोग और छात्र प्रेरणा पर संभावित प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए।
  • अधिगम के रूप में मूल्यांकन, जिसे स्व-मूल्यांकन के रूप में भी जाना जाता है, छात्रों को उनके स्वयं के मूल्यांकन में शामिल करने की एक प्रक्रिया है। इस प्रकार के मूल्यांकन का उद्देश्य छात्रों को अपने सीखने का मूल्यांकन करने और सुधार के लक्ष्य निर्धारित करने में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सशक्त बनाना है। इस प्रकार के मूल्यांकन की योजना बनाते समय, मूल्यांकन को पाठ्यक्रम के साथ संरेखित करने, उपयुक्त मूल्यांकन उपकरणों के उपयोग और छात्र प्रेरणा पर संभावित प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए।

सभी तीन प्रकार के आकलनों का एक अलग फोकस और उद्देश्य होता है , लेकिन उन सभी में एक चीज समान होती है: छात्र की शिक्षा को समझने और उसके अनुसार निर्देश को समायोजित करने के लिए शिक्षा प्रक्रिया में वे सभी आवश्यक हैं।

  • सीखने का आकलन प्रकृति में योगात्मक है।
  • सीखने के लिए मूल्यांकन प्रकृति में रचनात्मक है।
  • सीखने के रूप में मूल्यांकन आत्म-परीक्षा है।
  • सीखने का आकलन (Assessment of Learning): इस प्रकार के आकलन का उद्देश्य छात्र के अंतिम ग्रेड या उपलब्धि स्तर को निर्धारित करने के लिए एक इकाई या पाठ्यक्रम के अंत में स्थापित मानकों या सीखने के उद्देश्यों के संबंध में छात्र के ज्ञान, समझ और कौशल को मापना है। उदाहरण के लिए, पूरे सेमेस्टर में कवर की गई सामग्री के बारे में छात्र की समझ का मूल्यांकन करने के लिए इतिहास की कक्षा में अंतिम परीक्षा देना।
  • सीखने के लिए मूल्यांकन (Assessment for Learning): इस प्रकार के आकलन का उद्देश्य शिक्षकों को छात्रों की समझ के बारे में जानकारी प्रदान करना है, ताकि वे वास्तविक समय में निर्देश को समायोजित कर सकें और छात्रों को उनकी प्रगति के बारे में प्रतिक्रिया प्रदान कर सकें। उदाहरण के लिए, किसी अवधारणा के बारे में छात्र की समझ का मूल्यांकन करने और तदनुसार निर्देश को समायोजित करने के लिए गणित की कक्षा में रचनात्मक क्विज़ देना।
  • सीखने के रूप में मूल्यांकन (Assessment as Learning): इस प्रकार के आकलन का उद्देश्य छात्रों को अपने स्वयं के सीखने का मूल्यांकन करने और सुधार के लक्ष्य निर्धारित करने में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सशक्त बनाना है। उदाहरण के लिए, छात्रों को एक जर्नल में अपनी खुद की सीखने की प्रगति पर विचार करने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने के लिए कहना।

(Considerations)

कोई भी आकलन करते समय आपको किन बातों का ध्यान रखना चाहिए:

  • सीखने का आकलन: निष्पक्षता
  • (कोई पक्षपात नहीं), मूल्यांकन करते समय विवरणों का उल्लेख किया जाना चाहिए कि किस आधार पर मूल्यांकन किया जा रहा है, विश्वसनीय, वैध, आदि।

सीखने के आकलन के लिए विचार:

  • वस्तुनिष्ठता (Objectivity): यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि मूल्यांकन पक्षपातपूर्ण नहीं है और मूल्यांकन स्थापित मानकों या सीखने के उद्देश्यों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, बहु-विकल्प परीक्षण बनाते समय, परीक्षण-निर्माता को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विकल्प अग्रणी नहीं हैं और कुछ छात्रों के प्रति पक्षपाती नहीं हैं।
  • मानदंड या मानक (Criteria or Standards): छात्र के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले मानदंडों या मानकों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए , किसी छात्र के लेखन का आकलन करते समय, शिक्षक को एक रूब्रिक प्रदान करना चाहिए जो उन मानदंडों को रेखांकित करता है जिनका उपयोग छात्र के काम का मूल्यांकन करने के लिए किया जाएगा, जैसे कि संगठन, व्याकरण और शब्दावली।
  • विश्वसनीयता (Reliability): यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि मूल्यांकन विश्वसनीय है, जिसका अर्थ है कि परिणाम सुसंगत और सटीक हैं। उदाहरण के लिए, बहुविकल्पीय परीक्षा बनाते समय, शिक्षक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रश्न स्पष्ट हों, विकल्प विश्वसनीय हों और स्कोरिंग प्रणाली सुसंगत हो।
  • वैधता (Validity): यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि मूल्यांकन वैध है, जिसका अर्थ है कि यह वही मापता है जिसे मापने का इरादा है। उदाहरण के लिए , एक बहु-विकल्प परीक्षण बनाते समय, शिक्षक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रश्न इकाई के सीखने के उद्देश्यों के अनुरूप हों और छात्रों की सामग्री की समझ का आकलन करें।

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एक बार इसको औरअच्छे से देख लेते हैं |

  • छात्रों को यह जानने में मदद करता है कि कैसे सुधार किया जाए
  • प्रेरणा को बढ़ावा देता है |
  • स्व-और सहकर्मी-मूल्यांकन के लिए क्षमता विकसित करता है
  • संवेदनशील और रचनात्मक
  • प्रभावी सीखने का हिस्सा
  • लक्ष्यों/मापदंडों की समझ को बढ़ावा देता है |
  • सभी शैक्षिक उपलब्धि को पहचानता है |

सीखने के लिए आकलन:

  • छात्रों को यह जानने में मदद करता है कि सुधार कैसे करें (Helps students know how to improve): इस प्रकार का आकलन छात्रों को उनके सीखने पर प्रतिक्रिया देता है और उन्हें यह समझने में मदद करता है कि उन्हें सुधार करने के लिए क्या करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए , एक रचनात्मक प्रश्नोत्तरी के बाद, शिक्षक छात्र को फीडबैक प्रदान कर सकता है कि वे कौन से प्रश्न गलत हैं और क्यों, और उन्हें अध्ययन के लिए अतिरिक्त संसाधन भी दे सकते हैं।
  • प्रेरणा को बढ़ावा देता है (Fosters motivation): इस प्रकार का आकलन छात्रों को यह स्पष्ट समझ देकर कि उन्हें सुधार करने के लिए क्या करने की आवश्यकता है, और उन्हें उनकी प्रगति पर नियमित प्रतिक्रिया प्रदान करके प्रेरित करने में मदद करता है। उदाहरण के लिए , छात्रों को सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने और उनकी प्रगति पर नज़र रखने से उन्हें कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित करने में मदद मिल सकती है।
  • स्वयं और साथियों के आकलन के लिए क्षमता विकसित करता है (Develops capacity for self- and peer- assessment): इस प्रकार के आकलन से छात्रों को अपने स्वयं के सीखने और अपने साथियों के सीखने का मूल्यांकन करने की क्षमता विकसित करने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, छात्रों से रूब्रिक का उपयोग करके अपने स्वयं के काम का मूल्यांकन करना, या समूह परियोजना पर अपने साथियों को प्रतिक्रिया देना।
  • संवेदनशील और रचनात्मक (Sensitive and constructive): इस प्रकार का आकलन छात्रों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील होता है और रचनात्मक प्रतिक्रिया प्रदान करता है जो छात्रों को यह समझने में मदद करता है कि उन्हें सुधार करने के लिए क्या करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, किसी छात्र के लेखन पर लिखित प्रतिक्रिया देना जो विशिष्ट और कार्रवाई योग्य हो, न कि केवल एक ग्रेड।
  • प्रभावी सीखने का हिस्सा (Part of effective learning): इस प्रकार का मूल्यांकन प्रभावी सीखने का एक अनिवार्य हिस्सा है, क्योंकि यह शिक्षकों को छात्रों की समझ को समझने और तदनुसार निर्देश को समायोजित करने में मदद करता है, और छात्रों को अपने स्वयं के सीखने को समझने और सुधार के लक्ष्य निर्धारित करने में मदद करता है।
  • लक्ष्यों/मापदंडों की समझ को बढ़ावा देता है (Promotes understanding of goals/criteria): इस प्रकार का मूल्यांकन छात्रों को सफलता के लक्ष्यों और मानदंडों को समझने में मदद करता है, और उनके काम का मूल्यांकन कैसे किया जा रहा है। उदाहरण के लिए , छात्रों को किसी परियोजना या परीक्षण से पहले रूब्रिक या सीखने के उद्देश्य प्रदान करना।
  • सभी शैक्षिक उपलब्धि को पहचानता है (Recognizes all educational achievement): इस प्रकार का मूल्यांकन केवल अंतिम परिणाम ही नहीं बल्कि प्रगति, प्रयास और सुधार सहित सभी प्रकार की छात्र उपलब्धि को पहचानता है। उदाहरण के लिए , केवल अंतिम ग्रेड के बजाय समय के साथ किसी विषय में छात्र की प्रगति को पहचानना।
  • सीखने के रूप में मूल्यांकन (Assessment as Learning): आत्म-परीक्षा के दौरान ईमानदारी, यह आपके सीखने के अनुभव आदि को बढ़ाने में मदद करती है।

सीखने के रूप में मूल्यांकन के लिए विचार:

  • आत्म-परीक्षा के दौरान ईमानदारी (Honesty during Self-examination): स्वयं के सीखने और प्रगति का मूल्यांकन करते समय स्वयं के प्रति ईमानदार होना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे सुधार के क्षेत्रों की पहचान करने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए , यदि कोई छात्र एक लर्निंग जर्नल रख रहा है, तो उन्हें अवधारणा और उन क्षेत्रों की अपनी समझ के बारे में खुद के प्रति ईमानदार होना चाहिए जहाँ उन्हें सुधार करने की आवश्यकता है।
  • सीखने के अनुभव को बढ़ाना (Enhancing learning experience): इस प्रकार का मूल्यांकन छात्रों को उनके स्वयं के आकलन में शामिल करके और उन्हें अपने सीखने में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए सशक्त बनाकर सीखने के अनुभव को बढ़ाने में मदद करता है। उदाहरण के लिए , छात्रों को अपनी खुद की सीखने की प्रगति पर विचार करने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने से उन्हें अपने सीखने का अधिक स्वामित्व लेने में मदद मिल सकती है।
  • आत्म-जागरूकता (Self-awareness): इस प्रकार का मूल्यांकन छात्रों को आत्म-जागरूकता और मेटाकॉग्निशन विकसित करने में मदद करता है, जो कि स्वयं की सोच प्रक्रिया को समझने की क्षमता है, और अपने स्वयं के सीखने की निगरानी और सुधार करने के लिए रणनीतियों का उपयोग करता है। उदाहरण के लिए , छात्रों से नई जानकारी को समझने और याद रखने के लिए उपयोग की जाने वाली रणनीतियों की पहचान करवाना और फिर सबसे प्रभावी रणनीतियों को खोजने के लिए विभिन्न रणनीतियों के साथ प्रयोग करना।
  • मानदंडों की स्पष्ट समझ (Clear understanding of the criteria): इस प्रकार के मूल्यांकन के लिए छात्रों को उन मानदंडों या मानकों की स्पष्ट समझ की आवश्यकता होती है जिनके विरुद्ध उनका मूल्यांकन किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, छात्रों को एक रूब्रिक प्रदान करना और उन्हें अपने काम का आकलन करने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने के लिए कहना।
  • प्रतिक्रिया (Feedback): इस प्रकार के आकलन से छात्रों को खुद से और अपने साथियों से भी प्रतिक्रिया प्राप्त करने की अनुमति मिलती है, जो उन्हें अपने सीखने में सुधार करने में मदद कर सकता है। उदाहरण के लिए , छात्रों द्वारा समूह परियोजना पर अपने साथियों को फीडबैक देने से उन्हें सीखने की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल सकती है।

नोट्स के अंत में हम कुछ उदाहरण और देख लेते हैं जिससे सब कुछ क्लियर हो जाए

Assessment-Of-Learning-For-Learning-And-As-Learning-In-Hindi

Assessment of Learning

कुछ एक पंक्ति के उदाहरण.

  • किसी छात्र के ज्ञान या किसी विशेष विषय की समझ को मापने के लिए SAT या ACT जैसे मानकीकृत परीक्षण का संचालन करना।
  • पूरे सेमेस्टर में शामिल सामग्री की छात्र की समझ का मूल्यांकन करने के लिए गणित की कक्षा में अंतिम परीक्षा देना।
  • एक सेमेस्टर या एक वर्ष की अवधि में उनके काम का संग्रह और मूल्यांकन करके एक छात्र के लेखन का आकलन करना।
  • एक बाहरी मूल्यांकनकर्ता के पास छात्र के काम या प्रदर्शन का आकलन करना, जैसे कॉलेज प्रवेश अधिकारी छात्र के आवेदन की समीक्षा करना।
  • एक अंतिम परियोजना को पूरा करना जो एक छात्र की अवधारणा या कौशल की समझ को प्रदर्शित करता है, जैसे कि विज्ञान मेला परियोजना।
  • किसी विशेष क्षेत्र में छात्र के ज्ञान या कौशल को मापने के लिए प्रमाणन परीक्षा का संचालन करना।
  • पूरे पाठ्यक्रम में शामिल सामग्री के बारे में छात्र की समझ का मूल्यांकन करने के लिए पाठ्यक्रम के अंत या सत्र के अंत की परीक्षा का प्रबंध करना।

Assessment for Learning

  • एक अवधारणा के बारे में छात्र की समझ का मूल्यांकन करने और तदनुसार निर्देश को समायोजित करने के लिए गणित की कक्षा में रचनात्मक क्विज़ देना।
  • कक्षा में शामिल सामग्री के बारे में छात्र की समझ का मूल्यांकन करने और अगली कक्षा के लिए योजना बनाने के लिए कक्षा के अंत में निकास पर्ची देना।
  • कक्षा के दौरान छात्रों के व्यवहार और प्रदर्शन का अवलोकन करना ताकि उन क्षेत्रों की पहचान की जा सके जहां छात्रों को अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता है।
  • छात्रों को एक रूब्रिक प्रदान करना और उन्हें अपने काम का आकलन करने और सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने के लिए कहना।
  • छात्रों की प्रगति पर चर्चा करने और प्रतिक्रिया प्रदान करने के लिए उनके साथ एक-एक बैठक आयोजित करना।
  • विद्यार्थियों को लेखन कार्य में उनकी प्रगति पर नियमित रूप से रचनात्मक फीडबैक प्रदान करना।
  • छात्रों को अपनी स्वयं की सीखने की प्रगति पर विचार करने और जर्नल में सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित करने के लिए कहना।
  • छात्रों को एक अवधारणा की अपनी समझ का परीक्षण करने और सुधार के क्षेत्रों की पहचान करने के लिए परिणामों का उपयोग करने के लिए स्व-मूल्यांकन क्विज़ देना।

Assessment as Learning

अधिगम के रूप में आकलन.

  • विद्यार्थियों से अपने स्वयं के सीखने के लक्ष्यों को निर्धारित करने और उन्हें प्राप्त करने की दिशा में उनकी प्रगति को ट्रैक करने के लिए कहना।
  • शिक्षक द्वारा प्रदान किए गए रूब्रिक का उपयोग करके छात्रों को अपने काम का मूल्यांकन करने के लिए कहना।
  • किसी अवधारणा की अपनी समझ का परीक्षण करने के लिए छात्रों से स्व-मूल्यांकन क्विज़ या परीक्षण लेने और सुधार के क्षेत्रों की पहचान करने के लिए परिणामों का उपयोग करने के लिए कहना।
  • छात्रों को उनकी स्वयं की सोच प्रक्रियाओं के बारे में जागरूक करना और अपने स्वयं के सीखने की निगरानी और सुधार करने के लिए रणनीतियों का उपयोग करना।
  • विद्यार्थियों से समूह परियोजना पर अपने साथियों को प्रतिपुष्टि देना
  • छात्रों को इस बात पर विचार करने के लिए कहना कि उन्होंने क्या सीखा है और वे इसे भविष्य में कैसे लागू कर सकते हैं।
  • विद्यार्थियों से किसी प्रोजेक्ट के दौरान अपनी स्वयं की प्रगति का मूल्यांकन करवाना, और शिक्षक द्वारा प्रदान किए गए रुब्रिक के आधार पर स्वयं को अंक देना।
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2 thoughts on “Assessment Of Learning For Learning And As Learning In Hindi”

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thanku so much its super duper notes

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